14 July 2017

देहरी पर नहीं आये


हवा आयी
गंध आयी
गीत भी आये
पर तुम्हारे पाँव
देहरी पर नहीं आये


अब गुलाबी होंठ से
जो प्यास उठती है
वह कंटीली डालियों पर
सांस भरती है
नील नभ पर
अश्रु–सिंचित
फूल उग आये


तितलियों की
धड़कने
चुभती लताओं पर
डोलती चिनगारियाँ
काली घटाओं पर
इन्द्रधनु–सा
झील में
कोई उतर आये

झर रहे हैं चुप्पियों की
आँख से सपने
फिर हँसी के पेड़ की
छाया लगी डसने
शब्द आँखों से
निचुड़ते
आग नहलाये

–डॉ० ओम प्रकाश सिंह

13 July 2017

सूरज का ब्याह

उड़ी एक अफवाह, सूर्य की शादी होने वाली है
वर के विमल मौर में मोती उषा पिराने वाली है
मोर करेंगे नाच, गीत कोयल सुहाग के गाएगी
लता विटप मंडप-वितान से वंदन वार सजाएगी
जीव-जन्तु भर गए खुशी से, वन की पाँत-पाँत डोली
इतने में जल के भीतर से एक वृद्ध मछली बोली-
‘‘सावधान जलचरो, खुशी में सबके साथ नहीं फूलो
ब्याह सूर्य का ठीक, मगर, तुम इतनी बात नहीं भूलो
एक सूर्य के ही मारे हम विपद कौन कम सहते हैं
गर्मी भर सारे जलवासी छटपट करते रहते हैं
अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस-पाँच पुत्र जन्माएगा
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पाएगा ?
अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंश विहीन, अकेला है
इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।’’

-रामधारी सिंह दिनकर 

03 July 2017

माटी का पलंग मिला राख का बिछौना

माटी का पलंग मिला राख का बिछौना
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना

एक ही दुकान में सजे हैं सब खिलौने
खोटे–खरे, भले–बुरे, सांवरे सलोने
कुछ दिन तक दिखे सभी सुंदर चमकीले
उड़े रंग, तिरे अंग, हो गये घिनौने
जैसे–जैसे बड़ा हुआ होता गया बौना

मौन को अधर मिले अधरों को वाणी
प्राणों को पीर मिली पीर की कहानी
मूठ बाँध आये चले ले खुली हथेली
पाँव को डगर मिली वह भी आनी जानी
मन को मिला है यायावर मृग–छौना

शोर भरी भोर मिली बावरी दुपहरी
साँझ थी सयानी किंतु गूंगी और बहरी
एक रात लाई बड़ी दूर का संदेशा
फैसला सुनाके ख़त्म हो गई कचहरी
ओढ़ने को मिला वही दूधिया उढ़ौना
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना


-आत्म प्रकाश शुक्ल


25 June 2017

दे बादल रे ! राहत दे

भूखों को रोटी दे
प्यासों को पानी दे
बादल रे ! राहत दे
यों न परेशानी दे !

आंखों को सपने दे
बिछुड़ों को अपने दे
अकुलाये लोगों को
और मत तड़पने दे
अर्थहीन जीवन को
थोड़े-से मानी दे !

उमस-भरी धरती को
ठंडक दे, छाया दे
तन ढक निर्वस्त्रों के
निर्धन को माया दे
बधिरों को श्रवण-शक्ति
गूंगों को बानी दे !

आंखों को इंद्रधनुष
अधरों को मेघ-राग
पंछी को नीड़ मिले
जन-जन के खुलें भाग
आजीवन याद रहे
एक वह निशानी दे !

यक्षिणियों की गाथा
सुना विकल यक्षों को
थोड़ा-सा उत्सव दे
घायल उपलक्षों को
ठहरे संदर्भों को
तू तनिक रवानी दे !

छंदों, रसबंधों से
कविता की बुझे प्यास
इतना-भर मांग रहा
नव युग का कालिदास
बांच लिया मेघदूत
अब नई कहानी दे !
या शाकुंतल पीड़ा
जानी-पहचानी दे !


-योगेन्द्र दत्त शर्मा

मेघ आये

मेघ आये
सावनी सन्देश लाये
मेह लाये

बज उठे जैसे नगाड़े
शेर जैसे घन दहाड़े
बिजलियों में कड़क जागी
तड़ित की फिर तड़क जागी
यहाँ बरसे वहाँ बरसे
प्राणियों के प्राण सरसे
बादलों के झुंड आये
सलिल कण के कुंड लाये
खूब बरसे खूब छाये
मेघ आये
मेह लाये

गगन का है कौन सानी
बादलों की राजधानी
सुबह बरसे शाम बरसे
झूमकर घनश्याम बरसे
नदी ने तटबन्ध चूमा
झील का मन प्राण झूमा
सेतु बन्धन थरथराया
सृष्टि ने मल्हार गाया
छंद नदियों ने सुनाये
मेघ आये
मेह लाये

मस्त हो मन मोर नाचे
खत धरा का घटा बांचे
जंगलों में मेह बरसा
पर्वतों पर प्रेम सरसा
नेह साँसों में समाया
चतुर्दिक आनन्द छाया
दृष्टि में आमोद भरती
सुआपंखी हुई धरती
इन्द्रधनु जादू दिखाये
मेघ आये
मेह लाये

इधर पानी उधर पानी
हँसे छप्पर और छानी
झील में आई रवानी
आये ऐसे मेघ दानी
खेत जी भर खिलखिलाया
मेढ़ ने दिल फिर मिलाया
हँस रहा है सर्वहारा
स्वप्न आंखों में सजाये
मेघ आये
मेह लाये

-मनोज जैन मधुर

मेघ आये


मेघ आये बड़े बन-ठन के, सँवर के
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगी गली-गली
पाहुन ज्यों आये हों गाँव में शहर के

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाये
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाये
बांकी चितवन उठा नदी, ठिठकी, घूँघट सरके

बूढ़े़ पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की
‘बरस बाद सुधि लीन्ही’
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के

क्षितिज अटारी गदरायी दामिनि दमकी
‘क्षमा करो गाँठ खुल गयी अब भरम की’
बाँध टूटा झर-झर मिलन अश्रु ढरके
मेघ आये बड़े बन-ठन के, सँवर के

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

10 June 2017

सुखिया की औरत

( दिल्ली के शिक्षा विभाग में उप, शिक्षा निदेशक के पद पर कार्यरत डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर का उराँव लोक साहित्य पर विशेष कार्य है। "उराँव जन-जाति का लोक साहित्य" शीर्षक उनकी पुस्तक चर्चित रही है। डा० कुजूर साधारण जन-जीवन के मध्य से अपनी कविताओं के कथ्य चुनती हैं और उन्हें सीधे-सीधे मुक्त छन्द कविता के रूप में प्रस्तुत करती है। "और फूल खिल उठे" उनकी कविताओं का संग्रह है। प्रस्तुत है उनके इसी संग्रह से "सुखिया की औरत" शीर्षक कविता )


सुखिया की औरत
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सुखिया की औरत
पानी धूप में
टाँड़ खेत से
लाती है
छीलकर
दूब घास।
गिरा नदी में
मार पिछोड़ी
खूब हाथ से
धोती है !
ले बोरी में
रख कर
सिर पर
बगल टोकरी
सब्जी की।
देह अर्द्ध नग्न
एक हाथ में तुम्बा
भरा बासी पानी।
दो मील का रास्ता
चलकर पहुँची बाजार
सुखिया की औरत।
छाई उदासी
घास बोल-बोल कर
बेचा चार आने के
भाव से।
कई बार बेचा है
खरबूज
परवल
करेला
भिन्डी
और मटर
पर
सुखिया की औरत ने
नहीं बेची है
इंसानियत।

-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर


20 May 2017

हे चिर अव्यय ! हे चिर नूतन !


(पृकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत जी के जन्मदिवस पर)

हे चिर अव्यय ! हे चिर नूतन !

कण–कण तृण–तृण में
चिर निवसित
हे ! रजत किरन के अनुयायी
सुकुमार पकृति के उद्घोषक
जीवंत तुम्हारी कवितायी
फूलों के मिस शत वार नमन
स्वीकारो संसृति के सावन
हे चिर अव्यय !
हे चिर नतून !!

बौछारें धारें जब आतीं
लगता है तुम नभ से उतरे
चाँदनी नहीं है पत्तों पर
चहुँ ओर तम्हीं तो हो बिखरे
तारापथ के अनुगामी का
कर रही धरा है मूक नमन
हे चिर अव्यय !
हे चिर नतून !!

सुकुमार वदन’ सुकुमार नयन
कौसानी की सुकुमार धूप
पूरा युग जिसमें संदर्शित
ऐसे कवि के तुम मूर्तरूप
हैं व्योम, पवन अब खड़े, लिये
कर में अभिनन्दन पत्र नमन
हे चिर अव्यय !
हे चिर नतून !!

-डा० जगदीश व्योम

09 April 2017

तलाक

बीबी हुई गोरी मियाँ काले हुए तो तलाक
बीबी अंग्रेजी मियाँ हिन्दी पढ़ें तो तलाक
बीबी फैलसूफ मियाँ उफ करें तो तलाक
बीबी बतलाती मियाँ आगे बढ़े तो तलाक
-वचनेश

06 March 2017

आदिवासी लड़कियों के बारे में


ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं ....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फ़सलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !

-निर्मला पुतुल

11 January 2017

माँ

माँ सुनो,
आँखों में अब परी नहीं आती,
तुम्हारी थपकी नींद से कोसों दूर है,
आज भूख भी कैसी अनमनी सी है
तुम्हारी पुकार की आशा में,
"मुनिया...खाना खा ले"
माँ सुनो,
मैं बड़ी नहीं होना चाहती थी,
तुम्हारी छोटी उंगली से लिपटी
रहना चाहती थी,
छोटी बन कर ।
याद है माँ?
मैं माँ बनना चाहती थी?
'तुम' बनना चाहती थी?
बालों में तौलिया लगा कर?
बड़ी बिंदी में आईने से कितनी बातें की थीं...
सुनो माँ,
एक और बचपन उधार दोगी ?
बड़े जतन से
धो-पोंछ कर रखूँगी,
और जब बड़ी हो जाऊंगी,
बचपन-बचपन खेलूंगी
मैं, तुम बन कर..
माँ, 'तुम' ही तो हूँ न मैं?
तुम नहीं हो तो क्या...

-मानोशी

30 October 2016

तू ने भी क्या निगाह डाली री मंगले,

तू ने भी क्या निगाह डाली
री मंगले,
मावस है स्वर्ण-पंख वाली
करधनियाँ पहन लीं मुँडेरों ने
आले ताबीज पहन आये
खड़े हैं कतार में बरामदे
सोने की कण्ठियाँ सजाये
मिट्टी ने आग उठाकर माथे
बिन्दिया सुहाग की बना ली
री मंगले,
मावस है स्वर्ण-पंख वाली
सरसरा रहीं देहरी-द्वार पर
चकरी-फुलझड़ियों की पायलें
बच्चों ने छतों-छतों दाग दीं
उजले आनन्द की मिसाइलें
तानता बचपन हर तरफ़
नन्ही सी चटचटी दुनाली
री मंगले,
मावस है स्वर्ण-पंख वाली
द्वार-द्वार डाकि़ये गिरा गये
अक्षत-रोली-स्वस्तिक भावना
सारी नाराज़ियाँ शहरबदर,
फोन-फोन खनकी शुभ कामना
उत्तर से दक्छिन सोनल-सोनल
झिलमिल रामेश्वरम्-मनाली
री मंगले
मावस है स्वर्ण-पंख वाली

-रमेश यादव

02 October 2016

है किसकी तस्वीर !

सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर ?

नंगा बदन, कमर पर धोती
और हाथ में लाठी
बूढ़ी आँखों पर है ऐनक
कसी हुई कद-काठी
लटक रही है बीच कमर पर
घड़ी बँधी जंजीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर?

उनको चलता हुआ देखकर
आँधी शरमाती थी
उन्हें देखकर, अँग्रेजों की
नानी मर जाती थी
उनकी बात हुआ करती थी
पत्थर खुदी लकीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्वीर ?

वह आश्रम में बैठ
चलाता था पहरों तक तकली
दीनों और गरीबों का था
वह शुभचिंतक असली
मन का था वह बादशाह,
पर पहुँचा हुआ फकीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर?

सत्य अहिंसा के पालन में
पूरी उमर बिताई
सत्याग्रह कर करके
जिसने आजादी दिलवाई
सत्य बोलता रहा जनम भर
ऐसा था वह वीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर?

जो अपनी ही प्रिय बकरी का
दूध पिया करता था
लाठी, डंडे, बंदूकों से
जो न कभी डरता था
दो अक्टूबर के दिन
जिसने धारण किया शरीर
सोचो और बताओ,
आखिर है किसकी तस्वीर ?

-डा० जगदीश व्योम

25 September 2016

क्या कर लोगे

–द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हिला-हिला धीमे पत्तों को
पेड़े इशारा करके बोला
‘उड़ जा चिड़िया‚
उड़ जा चिड़िया
उड़ जा मेरे सिर से चिड़िया’
'देखें क्या कर लोगे मेरा'
फुदक–फुदक कर ऐंठी बैठी
चीं–चीं–चीं कर बोली चिड़िया
‘मार–मार हाथों के चाँटे
तुझको रुला भगा दूँगा मैं
चीं–चीं चीं–चीं बोल उठेगी
‘चाँटे लगने से पहले ही
फुर से उड़ जाऊँगी ऊपर
फिर आ बैठूँगी मैं सिर पर
क्या कर लोगे?’ बोली चिड़िया
‘तब फिर होगी मेरी तेरी
कुश्ती‚ मार भगा दूँगा मैं’
आना इधर भुला दूँगा मैं
कहा पेड़ ने ‘उड़ जा चिड़िया’
‘कुश्ती लड़ने से पहले ही
फिर से उड़ जाऊंगी ऊपर
फिर आ बैठूँगी मैं सिर पर
क्या कर लोगे?’ बोली चिड़िया
चिड़िया की ये बातें सुनकर
चुप था पेड़‚ नहीं था उत्तर
फिर वो अपने हाथ जोड़कर
बोला‚ ‘उड़ जा प्यारी चिड़िया’
अब तक तो तू खड़ा तना था
समझ लिया मुझको अदना था
चीं–चीं करके बोली चिड़िया
जो तुझमें है अपनी ताकत
मुझमें भी है अपनी ताकत‚
सब में अपनी–अपनी ताकत‚
चीं–चीं कर फिर बोली चिड़िया
तेरी भूल यही थी साथी
ना लघु चींटी‚ न बड़ हाथी
फर्ज था कि मैं तुझे बताती
यह कह फुर्र उड़ गई चिड़िया।

-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

24 July 2016

मीरा के भजन में था

मीरा के भजन में था जाने कौन जादू छुपा
जो कि चुटकी बजाते नाचते गुपाल थे
पल भर भी विलम्ब करना था अचरज
ऐसी मोहिनी सहेजे अश्रु के प्रवाल थे
होकर विभोर किनकाती थी मंजीरा जब
घनस्याम राग में नहाते स्वर-ताल थे
विष के न घूँट कैसे धारते सुधा का रुप
कण्ठ पर अँजुरी लगाये नन्दलाल थे।

-बदन सिंह मस्ताना

धनबल भुजबल

धनबल भुजबल हरबल व्यर्थ का है
कोई बल मीत तेरे काम नहीं आना है
पाप से हटा के पुण्य में लगा ले जिन्दगानी
साँस छूटते ही छूट जाना ये खजाना है
हरे राम, हरे कृष्ण रसना से रट नित
ऋषि मुनियों ने जिसे मुक्ति-पथ माना है
कंचन से ज्यादा अनमोल जिसे समझा है
माटी का शरीर, माटी में ही मिल जाना है।

-बदन सिंह मस्ताना

19 June 2016

जब से ऋतुओं ने तोड़ी है

-यतीन्द्रनाथ राही

जब से ऋतुओं ने तोड़ी है
अपनी ही निर्मित परंपरा
तब से मुझको यह धरती भी
बिलकुल बंजर-सी लगती है
कोयल की बोली छाती में
मुझको खंजर-सी लगती है

दिन कहाँ गए हरियाली के
फूलों का वैभव कहाँ गया
बादल से आग बरसती है
सावन का उत्सव कहाँ गया
पर्वत गुंडों की तरह अड़े
नंगे वृक्षों के झुंड खड़े
यह हवा झपटती, गालों पर,
मुझको थप्पड़-सी लगती है
जब से... ...

रंगों का मेला लगा हुआ
पर गंध यहाँ से गायब है
सुविधाओं की है भीड़ मगर
आनंद यहाँ से गायब है
मन कितना बड़ा मरुस्थल है
रेतीला उसका हर कोना
सपनों के मंज़र दिखते हैं
सुधियाँ खंडहर-सी लगती हैं
जब से ... ...

-यतीन्द्रनाथ राही

11 June 2016

प्रेम की पवित्र

प्रेम की पवित्र अभिनन्दनीय वादियों में,
जाने कौन सी बयार पत्तियों को छू गयी।
चाहत की चाँदनी सिहर गयी पोर-पोर,
आहत हुई तो ओस बनकर चू गयी।
भावना के रंग भेद-भाव के शिकार हुए,
अपनों से दूर अपनों की खुशबू गयी।
गाँव-गाँव गाते रहे भजन कबीरदास,
किन्तु किसी मन से न मैं गया न तू गयी।।

-डा० अशोक अज्ञानी

जनता के दुःख-दर्द

जनता के दुःख-दर्द का नहीं निवार करे,
ऐसा कोई राजा हो या रानी किस काम की।
भूखे नंगे दीनन को दे सके न कोई लाभ,
शासन की वो मेहरबानी किस काम की।
देशप्रेम देशभक्ति भावना से भरा नहीं,
ऐसा कोई गीत या कहानी किस काम की।
देश की आन वान शान पर न दे दे जान,
निरझर ऐसी भी जवानी किस काम की ।।

-सत्येन्द्र निर्झर 

29 March 2016

मन

-प्रशांत यादव
कितना भोला, कितना चंचल होता है ये मन
कभी इधर तो कभी उधर भटका करता पल-छिन
बार-बार सोचा, इसको कर लूँ अपने वश में
रहा मगर हर बार फिसलता है ये चंचल मन

यूँ तो आज तलक इस मन को देखा नहीं किसी ने
मगर हमारे जीवन की ये सबसे अहं कड़ी है
मन की अदा विचित्र बड़ी है और अनोखी दुनिया
इसके इर्द गिर्द हरियाली की हर फसल खड़ी है

मन है ऐसा चमन जहाँ खिलते भावों के फूल
जहाँ पहुँच पल भर में सारे दुख जाते हम भूल
रंग बिरंगे स्वप्न हमारे मन में ही तो आते
इन सपनो से रच लेते हम जग अपने अनुकूल

जहाँ पहुँचने में सकुचाती है सूरज की किरने
पलक झपकते यह चंचल मन वहाँ पहुँच जाता है
मन के लिए नहीं नामुमकिन इस दुनिया में कुछ भी
हम जैसा, जो कुछ भी चाहें, मन में हो जाता है

मानव के व्यक्तित्व सकल का मन होता है दर्पण
चंचल मन के आगे मानव करता सदा समर्पण
है इतना आसान नहीं मन का वर्णन कर पाना
धरती अम्बर तक रहता है मन का आना जाना


मन की व्याख्या नहीं कर सके बड़े-बड़े मुनि ज्ञानी
यह बहता रहता है जैसे किसी नदी का पानी
मन की शक्ति अपार, न इसके आगे चली किसी की
पा जाता राही मंजिल यदि उसने मन में ठानी

-प्रशांत यादव
[ यू.एस.ए. ]

06 December 2015

दोहे


खर्च दिया, मजदूर बन, श्रम कर तोड़े हाड़।
अफसर बेटे को हुए, वे माँ-बाप कबाड़।।

"टैडी"  ड्राइंग-रूम में, सोफे पर आसीन।
पड़े खरहरी खाट पर, डैडी वृद्ध मलीन।।

स्वार्थ, धूर्तता, छल-कपट, झूठ गिरगिटी रंग।
मानव का व्यवहार अब, हुआ बहुत बदरंग।।


नेता अभिनेता बने, लोकतंत्र अलमस्त।
भ्रष्ट सकल सेवा-व्रती, जन-जीवन संत्रस्त।।

-डा० अनिल गहलोत
[डा० अनिल गहलोत के वाट्सप समूह से साभार] 

24 October 2015

परम्परा

परम्परा को
अंधी लाठी से मत पीटो
जो जीवित है
जैसी भी हो
ध्वंस से
बचा रखने लायक है।
पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बाँध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का काम है।
परम्परा और क्रान्ति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है तो
सूखी टहनियों को जलने दो।
परम्परा जब लुप्त होती है
लोगों को नींद नहीं आती
न नशा किए बिना
चैन या कल पड़ती है
परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द से मरती है।

-रामधारी सिंह दिनकर

05 August 2015

मेरे रहते

[ सुप्रसिद्ध कहानीकार सन्तोष श्रीवास्तव के सुपुत्र हेमन्त की पुण्यतिथि पर प्रस्तुत है उन्ही की एक कविता]-


ऐसा कुछ भी नही होगा मेरे बाद
जो न था मेरे रहते
वही भोर के धुँधलके में लगेंगी डुबकियाँ
दोहराये जायेंगे मंत्र श्लोक
वही ऐन सिर पर धूप के चढ जाने पर
बुझे चेहरे और चमकते कपडों में
भागेंगे लोग दफ्तरों की ओर
वही द्वार पर चौक पूरे जायेंगे
और छौंकी जायेगी सौंधी दाल
वही काम से निपटकर
बतियाएँगी पडोसिनें सुख दुख की बातें
वही दफ्तर से लौटती थकी महिलाएँ
जूझेंगी एक रुपये के लिये सब्जी वाले से
वही शादी ब्याह,पढाई कर्ज
और बीमारी के तनाव से जूझेगा आम आदमी
सट्टा,शेयर,दलाली,हेरा फेरी में डूबा रहेगा
खास आदमी
गुनगुनाएँगी किशोरियाँ प्रेम के गीत
वेलेंटाइन डे पर गुलाबों के साथ प्रेम का प्रस्ताव लिये
ढूँढेंगे किशोर मन का मीत
सब कुछ वैसे ही होगा....जैसा अभी है मेरे रहते
हाँ,तब ये अजूबा ज़रूर होगा
कि मेरी तस्वीर पर होगी चन्दन की माला
और सामने अगरबत्ती
जो नहीं जलीं
मेरे रहते

-हेमन्त
(सन्तोष श्रीवास्तव की फेसबुक बाल से साभार)

03 July 2015

एक हाथ में हल की मुठिया

एक हाथ में हल की मुठिया
एक हाथ में पैना
मुँह में तिक-तिक बैल भागते
टालों का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना

सिर पर पाग बदन पर बंडी
कसी जाँघ तक धोती
ढलक रहे माथे से नीचे
बने पसीना मोती
टँगी मूँठ में हलकी थैली
जिसमें भरा चबेना
भइ गुन गुन का क्या कहना

जोड़ी लिए जुए को जाती
बँधा बँधा हल खिंचता
गरदन हिलती टाली बजती
दिल धरती का सिंचता
नाथ-जेबड़े रंग बिरंगे
बढ़िया गहना पहना
भइ सजधज का क्या कहना

गढ़ी पैंड की नोंक जमीं पे
खिंच लकीर बन जाती
उठती मिट्टी फिर आ गिरती
नोंक चली जब जाती
बनी हलाई, हुई जुताई
सुख का सोता बहता
भइ इस सुख का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना

-विश्वनाथ राघव
"धरती के गीत" संकलन से

14 March 2015

कैसे बीते दिवस हमारे

कैसे बीते दिवस हमारे 
सहती रही सभी कुछ काया
मलिन हुआ परिवेश
सूख चला नदिया का पानी
आधा जीवन रेत
उगे काँस मन के कूलों पर
उजड़ा रूप ललाम
हम जानें या राम ...

प्यार हमारा ज्यों इकतारा
गूँज-गूँज मर जाय
जैसे निपट बावरा जोगी
रो-रो चिता उड़ाय
बट-पीपल-घर-द्वार-सिवाने 
सबको किया प्रणाम
हम जानें या राम ...

आँगन की तुलसी मुरझायी
क्षीण हुए सब पात
सायंकाल डोलता सिर पर
बूढ़ा नीम उदास
हाय रे वो बाबुल का अँगना
 बिना दिये की शाम
हम जानें या राम ...

सुन रे जल, सुन री ओ माटी 
सुन रे ओ आकाश
सुन रे ओ प्राणों के दियना
सुन रे ओ वातास
दुःख की इस तीरथ-यात्रा में
पल न मिला विश्राम
ऐसे बीते दिवस हमारे
हम जानें या राम

- प्रेम शर्मा

06 March 2015

जंगल में होली

होली के इस शुभ अवसर पर
आज शेर ने सभा बुलाई
सुनो सुनो सब जंगल वालों
चिल्लाती है कोयल ताई
भरी सभा में किंग शेर ने
अपना ये फरमान सुनाया
रंग नहीं खेला जाएगा
इस जंगल में अब से भाया
पर होली में हम तो मालिक
हरदम रंग खेलते आये
बोल सामने खड़ा हो गया
पलटू गदहा मुँह लटकाये
लाल लोमड़ी लच्छो बोली
ठीक कह रहे हैं राजा जी
मिलावटी रंगों से देखो
मुझको लगी जान की बाजी
कल्लू कौआ बोल पड़ा बस
सच ही कहा लोमड़ी नानी
रंग न कोई चढ़ता मुझ पर
हो जाऊँ मैं पानी पानी
हाथी बोला सही बात है
पानी सब गंदा हो जाता
कई दिनों तक गंदा पानी
मुझसे पिया पिया ना जाता
तभी उछल कर खड़ा हो गया
रामभजन बन्दर का बच्चा
होली में गर रंग न होंगे
मुझको नहीं लगेगा अच्छा
उसके पीछे खड़ी हो गई
जंगल भर की बच्चा टोली
धीरे धीरे चली शेरनी
बीच सभा में आ कर बोली
ऐसा करते हैं राजा जी
सूखी होली हम खेलेंगे
औ मिलावटी रंगों को हम
फूलों के रँग से बदलेंगे
सबने मिलकर फूल सुखा कर
तरह तरह का रंग बनाया
इस होली में सब ने खेला
कोई तनिक नहीं घबराया !!

-डा० प्रदीप शुक्ल

30 December 2014

सर्दी के दोहे

आंगन कभी मुंडेर पर, झलके उसका रूप।
आँख-मिचौली खेलती, है जाड़े की धूप।।

आई ठिठकी और फिर, लोप हो गई धूप।
जाते जाते ठंड का, थमा गई प्रारूप।।

सूरज दुबका गगन में, डाल धुंध की शाल।
ठंड कलेजा चीरती, लोग हुए बेहाल।।

जीवन हिम-सा हो रहा, हवा चलाये तीर।
मलता रहे हथेलियाँ, अकड़ा हुआ शरीर।।

होंठ रहे हैं थरथरा, काँप रहे हैं गात।
धुआं-धुआं सी हो रही, मुंह से निकली बात।।

युवा-वृद्ध-नर-नारियाँ, क्या भोगी क्या संत।
सभी मनाते हैं यही, आये शीघ्र वसंत।।

-शैलेन्द्र शर्मा


24 October 2014

ज्योति पर्व २०१४


 -हरिराम पथिक 

सत्य जीता, झूठ की लंका दहन
आ गई है हर दिशा सूरज पहन
देख यह वातावरण संकल्प कहता
पाप पल भर भी नहीं होगा सहन।

०००

दिखरहीं दुर्भावनाएँ हैं बड़ी
आ गई फिर से चुनौती की घड़ी
आओ ! थामें रोशनी का हाथ हम
सामने संभावनाएँ हैं खड़ी।

०००

पाँव आतुर लक्ष्य पाने के लिए
शब्द आतुर भाव पाने के लिए
आ गया उत्सव उजाले का "पथिक"
दीप आतुर जगमगाने के लिए

- हरिराम पथिक


08 August 2014

ईसुरी की फागें

ऐंगर बैठ लेओ कछु काने, काम जनम भर राने
सबखौं लागौ रातु जिअत भर, जा नईं कभऊँ बड़ाने
करियौ काम घरी भर रै के, बिगर कछू नइँ जाने
ई धंधे के बीच ईसुरी, करत-करत मर जाने

*           *             *             *

जो तुम छैल छला बन जाते, परे अँगुरियन राते
मों पोंछत गालन के ऊपर, कजरा देत दिखाते
घरी घरी घूघट खोलत में, नजर सामने आते
ईसुर दूर दरस के लाने, ऐसे काए ललाते

*           *             *             *

जबसें छुई रजऊ की बइयाँ, चैन परत है नइयाँ
सूरज जोत परत बेंदी पै, भर भर देत तरइयाँ
कग्गा सगुन भये मगरे पै, छैला सोऊ अबइयाँ
कहत ईसुरी सुनलो प्यारी, ज्यो पिंजरा की टुइयाँ

*           *             *             *

नईयाँ रजऊ तुमारी सानी सब दुनिया हम छानी
सिंघल दीप छान लओ घर-घर, ना पदमिनी दिखानी
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन, खोज लई रजधानी
रूपवंत जो तिरियाँ जग में, ते भर सकतीं पानी
बड़ भागी हैं ओई ईसुरी तिनकी तुम ठकुरानी

*           *             *             *

-ईसुरी

29 June 2014

मैं घना छतनार बरगद हूँ

-भारतेन्दु मिश्र

मैं घना छतनार बरगद हूँ
जड़ें फैली हैं
अतल-पाताल तक

अनगिनत आए पखेरू
थके माँदे द्वार पर
उड़ गए अपनी दिशाओं में
सभी विश्राम कर
मैं अडिग-निश्चल-अकम्पित हूँ
जूझकर लौटे
कई भूचाल तक

जन्म से ही
ग्रीष्म वर्षा शीत का
अभ्यास है
गाँव पूरा जानता
इस देह का इतिहास है
तोड़ते पल्लव
जटायें काटते
नोचते हैं लोग
मेरी खाल तक

अँगुलियों से फूटकर
मेरी जड़ें बढ़ती रहीं
फुनगियाँ आकाश की
ऊँचाइयाँ चढ़ती रहीं
मैं अमिट
अक्षर सनातन हूँ
शरण हूँ मैं
लय विलय के काल तक

-भारतेन्दु मिश्र

17 May 2014

सिंह की खेती किसी भी स्यार को खाने न देना

  

राष्ट्र के श्रृंगार ! मेरे देश के साकार सपनो
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना
जिन शहीदों के लहू से लहलहाया चमन अपना
उन वतन के लाड़लों की याद मुर्झाने न देना
देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना

तुम न समझो‚ देश की स्वाधीनता यों ही मिली है‚
हर कली इस बाग की‚ कुछ खून पीकर ही खिली है
मस्त सौरभ‚ रूप या जो रंग फूलों को मिला है
यह शहीदों के उबलते खून का ही सिलसिला है
बिछ गये वे नींव में‚ दीवार के नीचे गड़े हैं
महल अपने‚ शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं
नींव के पत्थर तुम्हें सौगन्ध अपनी दे रहे हैं
जो धरोहर दी तुम्हें‚ वह हाथ से जाने न देना

देश के भूगोल पर जब भेड़िये ललचा रहें हो
देश के इतिहास को जब देशद्रोही खा रहे हों
देश का कल्याण गहरी सिसकियाँ जब भर रहा हो
आग–यौवन के धनी ! तुम खिडकियाँ शीशे न तोड़ो
भेड़ियों के दाँत तोड़ो‚ गर्दने उनकी मरोड़ो
जो विरासत में मिला वह‚ खून तुमसे कह रहा है–
सिंह की खेती किसी भी स्यार को खाने न देना

तुम युवक हो‚ काल को भी काल से दिखते रहे हो
देश का सौभाग्य अपने खून से लिखते रहे हो
ज्वाल की‚ भूचाल की साकार परिभाषा तुम्हीं हो
देश की समृद्धि की सबसे बड़ी आशा तुम्हीं हो
ठान लोगे तुम अगर‚ युग को नई तस्वीर दोगे
गर्जना से शत्रुओं के तुम कलेजे चीर दोगे
दाँव पर गौरव लगे तो शीश दे देना विहँस कर
देश के सम्मान पर काली घटा छाने न देना

वह जवानी‚ जो कि जीना और मरना जानती है
गर्भ में ज्वालामुखी के जो उतरना जानती है
बाहुओं के जोर से पर्वत जवानी ठेलती है
मौत के हैं खेल जितने भी‚ जवानी खेलती है
नाश को निर्माण के पथ पर जवानी मोड़ती है
वह समय की हर शिला पर चिह्न अपने छोड़ती है
देश का उत्थान तुमसे माँगता है नौजवानों
दहकते बलिदान के अंगार कजलाने न देना
         
 –श्रीकृष्ण सरल

16 March 2014

लगता है अब कोई यार नहीं आएगा होली में

-ओमप्रकाश यती

डिप्टी साहब का परिवार नहीं आएगा होली में
छोटा वाला भी इस बार नहीं आएगा होली में

प्यारेमोहन ने दिल्ली से कल ही घर पर फ़ोन किया
बच्चा उसका है बीमार, नहीं आएगा होली में

कॉलिज की छुट्टी है लेकिन कोचिंग बंद नहीं होगी
रामनरायन है लाचार, नहीं आएगा होली में

दीपक की साली कुछ दिन को ‘सूरत’ आने वाली है
बोल रहा था अबकी बार नहीं आएगा होली में

अब किसको फ़ुरसत है भइया गाँव किसे याद आता है
लगता है अब कोई यार नहीं आएगा होली में

-ओमप्रकाश यती
[फेसबुक से साभार]

09 March 2014

सौ-सौ बार बधाई

चढ़ती धूप
उतरता कुहरा
कोंपल अँखुआई
नए वर्ष में
नवगीतों की
फिर बगिया लहराई

मन कुरंग
भर रहा कुलाँचें
बहकी
गंध-भरी पुरवाई
ठिठुरन बढ़ी
दिशाएँ बाधित
चन्द्र-ग्रहण ने की अगुआई
फिर से आज बधाई !
सबको
सौ-सौ बार बधाई !!

सारस जोड़ी
लगीं उतरने
होने लगीं कुलेलें
विगत साल की
उलझी गुत्थीं
चोंच मिलाकर खोलें
मंत्र-मुग्ध हो गई किसानिन
सकुची, खड़ी, लजाई !
फिर से आज बधाई!
सबको
सौ-सौ बार बधाई !!


-डा० जगदीश व्योम

01 March 2014

दिन दिवंगत हुए

- डा० कुँअर बेचैन 

रोज़ आँसू बहे रोज़ आहत हुए
रात घायल हुई, दिन दिवंगत हुए
हम जिन्हें हर घड़ी याद करते रहे
रिक्त मन में नई प्यास भरते रहे
रोज़ जिनके हृदय में उतरते रहे
वे सभी दिन चिता की लपट पर रखे
रोज़ जलते हुए आख़िरी ख़त हुए
दिन दिवंगत हुए

शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे
नैन में ज्योति का दीप बाले रहे
और जिनके दिलों में उजाले रहे
अब वही दिन किसी रात की भूमि पर
एक गिरती हुई शाम की छत हुए
दिन दिवंगत हुए

जो अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी
वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी
है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी
दिन कि जो प्राण के मोह में बंद थे
आज चोरी गई वो ही दौलत हुए
दिन दिवंगत हुए

चाँदनी भी हमें धूप बनकर मिली
रह गई जिंन्दगी की कली अधखिली
हम जहाँ हैं वहाँ रोज़ धरती हिली
हर तरफ़ शोर था और इस शोर में
ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए
दिन दिवंगत हुए

-डा०  कुँअर बेचैन 

14 February 2014

आहत है संवेदना

आहत है संवेदना, खण्डित है विश्वास ।
जाने क्यों होने लगा, संत्रासित वातास ।।

-डा॰ जगदीश व्योम

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इस दोहे पर फेसबुक पर लिखी गई विद्वानों की टिप्पणियों को यहाँ पोस्ट किया जा रहा है--

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इस दोहे के अनुसार मेरे विचार से रचनाकार विश्वास टूटने से आहत है और उसे अनायास अपने आसपास का वायुमंडल ही निराश करता हुआ प्रतीत होता है ...आपने सही कहा हम सभी के आसपास यही वातावरण है ...मगर फिर भी कुछ अच्छे लोग इस अँधेरे में मशाल लिए मिल ही जाते हैं



-संध्या सिंह



आजकल लोगों में आपसी प्रेम ,सद्भाव और सहानुभूति की कमी देखने को मिलती है .लोग स्वकेंद्रित होते जा रहे है .अतः आपस का विश्वास टूटता जा रहा है हर व्यक्ति दूसरों को संदेह की दृष्टि से देखता है आपस में ,अपनों से भी भयभीत रहता है ..पूरा वातावरण ही ऐसा हो उठा है



-ज्योतिर्मयी पन्त



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भौतिकतावादी समाज की विडंबना को उकेरनेवाला पुष्ट दोहा है ! किन्तु मित्र 'आहत संवेदना' और 'खंडित विश्वास' ही घोषित कर रहे है कि ये मानव-मूल्य शून्य नहीं हो गये हैं ! खंडित ही सही , पर संवेदना और विश्वास अभी भी अस्तित्वमान हैं ! मेरा दृढ विश्वास है कि "शून्य कभी होंगे भी नहीं"........ ! मानव-मूल्यों के पक्षधर तो बहुसंख्य हो सकते हैं, उनसे समृद्ध लोग अल्पसंख्यक ही होते हैं ! निजी स्तर पर सम्वेदना का आहत होना और विश्वास का खंडित होना बड़ी दुर्घटना है, इससे दशों दिशाएं अंधकारमय लगने लगती हैं , पर समाज में ये मूल्य अभी भी हैं और रहेंगे , तभी तो कविता जीवित है, कलाएं जीवित हैं !



-डा० धनंजय सिंह



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"जाने क्यों होने लगा" अब यह कोई यक्ष प्रश्न नहीं रह गया है.यथार्थ के धरातल पर अपने अपने स्तर से इसका उत्तर दिया जा रहा है. अभी "वीर विहीन मही" वाली स्थिति नहीं आई है और न ही इसकी कोई सम्भावना है. प्रेम अपने शाश्वत रूप में अभी भी विदयमान है. कवियों/रचनाकारों/मानवता के शुभचिंतकों की आपके दोहे से तादात्म्यता आपके दोहे का उत्तर है.



-रामशंकर वर्मा

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बहुत चमत्कारपूर्ण दोहा है ! "जाने क्यों होने लगा ?" प्रश्न का उत्तर स्वयं रचना ही दे रही है : क्योंकि विश्वास खंडित हो चुका है ( इसलिए आश्वासन बेमानी हो गए हैं ); क्योंकि संवेदनाएँ क्षरित हो चुकी हैं ( परिणामतः किसी के दुःख-दर्द से किसी का कोई सरोकार नहीं) ! खंड-खंड जीवन और त्रासद अकेलापन, इसी विडम्बना से जूझते हम सब !


-अश्विनी कुमार विष्णु

29 January 2014

मछलियाँ

-अश्विनी कुमार विष्णु

पुरखों ने
क्या कुछ भी नहीं सिखाया
मछलियों को ?
पानी में ही क्या कम दुश्मन हैं इनके
जो बार-बार उछले जा रही हैं हवा में
इनके हिस्से की साँसों में तर
मचल रही हैं लहरें-ही-लहरें
फिर क्यों
बार-बार उन्हें धता बताकर
भाग पड़ती हैं यूँ आसमान की ओर
क्यों बेख़बर हैं
खुली धूप खिली फ़िज़ा की हक़ीक़त से
क्यों बार-बार
कौंध जाती हैं उन आँखों में
जिनमें बचा ही नहीं इनके हिस्से का पानी
क्यों कुलाँचें भर रही हैं इस तरह
मूँगिया चट्टानों और चाँद-तारों के गगन के बीच
जो फ़ासिला है
उसे तय-फ़तह नहीं कर सकते इनके कोमल पख
क्यों हुई जा रही हैं इस क़दर बेपरवाह
क्यों नहीं समझ सक रही हैं
कि
धूपिया हवाओं में घुले हैं इनके लिए
दमघोंटू महाशून्य अथाह
पुरखों की सीख से नाता तोड़ चुकी
मछलियाँ तो नहीं हैं ये ?
बँगलों के कोनों में रखे
एक्वेरियम की रौनक़ बनना तो नहीं है इनका ख़्वाब ?
इनकी हर उमंग के पीछे
कहीं काम तो नहीं कर रही
किसी बगुले भगत की जुगत ?
हो सकता है रीझती भी हों आकाशगंगाएँ
इनके हौसलों पर
इनका यह जूनून
सुकून छीन रहा है मेरा
हालाँकि चाहता तो मैं भी हूँ
कि, मछलियाँ भरें पंछियों-सी उड़ान
आँगनों, वन-काननों की कोंपलों में
रहे उनका भी बसेरा !

-अश्विनी कुमार विष्णु

04 November 2013

आँगन


-परेश तिवारी 

मेरे घर
रोज़ कुछ परिंदे आते थे
हम
सवेरे-शाम दाना जो डालते थे
छोटे से आँगन में
ढेरों परिंदे
फुदक-फुदक कर शोर मचाते ...
चहक-चहक के
घर सर पे उठा लेते
भरोसा भी बहुत जल्दी करते थे
मैं पास जाता तो
गर्दन टेढ़ी करके मुझे देखते
फिर
पैरों के पास से दाने चुग जाते
शायद
भरोसा करके
गल्ती की उन्होने…
हम
पत्थर को खुदा कहने वाले
ज़िन्दगी से
इश्क़ कैसे करते ...
आज
आसमान छूती इमारतों में
ना आँगन छोड़े हमने...
ना परिंदे...

-परेश तिवारी
हैदराबाद

[परेश अंग्रेजी में हाइकु कविताएँ लिखते हैं, हिन्दी में भी उन्होंने कविताएँ लिखी हैं, परेश की कविताओं में समूची प्रकृति के प्रति संवेदना उभर कर आती है]


18 August 2013

वृक्ष का गुरु

-डा॰ जगदीश व्योम

वृक्ष से पूछा
अचानक एक दिन मैंने
कि तुम
धारण किया करते सदा
नूतन, नयी काया
तुम्हारी टहनियाँ, शाखें
नये पत्ते, नयी कोंपल
सभी, आश्रय दिया करते सदा
हैं क्लांत पथिकों को
बुलाती हैं तुम्हारी डालियाँ
जब राहगीरों को
तभी तुम
मुग्ध मन से फल गिरा
आतिथ्य करते हो
मगर
आकुल न जाने क्यों
पथिक की दृष्टि हो जाती
निरखता जब
तुम्हारा दमकता वैभव
नहीं वह रोक पाता है
छिपी शैतानियत मन की
उठाकर हाथ में पत्थर
चलाता है तुम्हीं पर
और तुम !
हँसकर उसे फल
दे  दिया करते
बताओ !
पाठ यह
तुम सीख कर आये कहाँ से हो
तुम्हारा कौन गुरु है ?
क्या तुम्हें
शिक्षा उसी ने दी
कि तुम
सर्वस्व अपना
सौंप दो उसको
कि जो
हो अहित करने हेतु आतुर !
तुम्हारे उस गुरु को
काश !
मानव पा गया होता !!

-डा॰ जगदीश व्योम

04 July 2013

मन होता है पारा


मन होता है पारा 
ऐसे देखा नहीं करो

जाने तुमने क्या कर डाला 
उलट-पुलट मौसम
कभी घाव ज्यादा दुखता है
और कभी मरहम
जहाँ-जहाँ ज्यादा दुखता है
छूकर वहीं दुबारा
ऐसे देखा नहीं करो

यह मुसकान तुम्हारी
डूबी हुई शरारत में
उलझा-उलझा खत हो जैसे
साफ इबारत में
रह-रह कर दहकेगा
प्यासे होठों पर अंगारा
ऐसे देखा नहीं करो

कौन बचाकर आँख
सुबह की नींद उघार गया
बूढे सूरज पर पीछे से
सीटी मार गया
हम पर शक पहले से है
तुम करके और इशारा
ऐसे देखा नहीं करो

होना-जाना क्या है 
जैसा कल था वैसा कल
मेरे सन्नाटे में बस
सूनेपन की हलचल
अँधियारे की नेमप्लेट पर
लिख-लिख कर उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो



-रामानंद दोषी

01 April 2013

link


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साहित्यकारों के फोटो एवं परिचय


कविता पोस्टर
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विविध छन्द
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साहित्यिक गतिविधियाँ
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माँ कबीर की साखी जैसी
www.youtube.com/watch?v=B6vgAyHdCNs

पुस्तक समीक्षा
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31 March 2013

कागज का भी मन होता है


-डा० विजेन्द्र पाल शर्मा

कागज का भी मन होता है
हर क्षण मन में उल्लास भरे
आशा का हार पिरोता है

इसका वक्षस्थल मत चीरो
कोमल स्पर्श करो भाई
इसमें बलिदानी सोए हैं
वीरों की संचित तरुणाई
इस पर फूहड़पन मत परसो
लज्जा से नयन भिगोता है

जब मन की कुछ बातों का हो
अधरों पर लाना बहुत कठिन
जब आतुर मन तय करता हो
लम्बी रातें तारे गिन-गिन
वाणी का तब वाहक बनकर
प्रियतम का प्राण बिलोता है

परदेश गये बेटे की माँ
जब कोई ख़बर नहीं पाती
ऐसा होगा, वैसा होगा
यह सोच-सोच धड़के छाती
तब काग़ज़ उसका नाम लिखा
माँ के मन चन्दन बोता है

गीता, कुरान, गुरुग्रन्थ और
बाइबिल इसकी ही है महिमा
रसखान, बिहारी, तुलसी की
इसके कारण ही है गरिमा
जो सादर पलकों पर रखता
वह अमर जगत में होता है
काग़ज़ का भी मन होता है।

-डा० विजेन्द्र पाल शर्मा
( "कागज का भी मन होता है" गीत संग्रह से साभार )

26 January 2013

गणतन्त्र-दिवस है


-ओमप्रकाश यती

आओ ख़ुशी मनाएँ कि गणतन्त्र-दिवस है
सबको गले लगाएँ कि गणतन्त्र-दिवस है

हम शेख़-बरहमन नहीं हैं, भारतीय हैं
सब मिल के गुनगुनाएँ कि गणतन्त्र-दिवस है

मौसम ने पूछा,किसलिए ये मस्तियाँ इतनी
कहने लगीं हवाएँ कि गणतन्त्र-दिवस है

हत्या,बलात्कार,डकैती के शोर को
अब भी चलो दबाएँ कि गणतन्त्र-दिवस है

जो चोट कर रहे हैं रोज़ संविधान पर
वे आज तो शर्माएँ कि गणतन्त्र-दिवस है

वो कौन है जो आंसुओं को पोंछता नहीं
चलकर उसे बताएं कि गणतन्त्र-दिवस है

दे देंगे जान देश पुकारेगा जब ‘यती’
आओ कसम ये खाएं कि गणतन्त्र-दिवस है

-ओमप्रकाश यती

15 January 2013

जायसी


मलिक मोहम्मद जायसी ( जन्म १४७५ ई० के आस पास) के पाँच दोहे यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। जायसी प्रारम्भिक दोहाकारों में आते हैं इसलिये इनके दोहों में कहीं कहीं मात्रा दोष हो सकता है। जायसी ने अवधी भाषा में साहित्य रचना की है।


अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत ।
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥

(पद्मावत से)



जस तन तस यह धरती, जस मन तैस अकास ।
परमहंस तेहि मानस, जैसि फूल महँ बास ॥

दूध माँझ जस घीउ है, समुद माँह जस मोति ।
नैन मींजि जो देखहु, चमकि ऊठै तस जोति ॥



आपुहि खोए पिउ मिलै, पिउ खोए सब जाइ ।
देखहु बूझि बिचार मन, लेहु न हेरि हेराइ ॥



पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ ।
एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ ॥

( अखरावट से)

14 January 2013

तुम भारत को जगा गयी


लड़ी शेरनी जैसी थी तुम, जान की बाजी लगा गईं
भारत की सच्ची बेटी थीं, यह दुनिया को दिखा गईं
सन् बारह के जाते-जाते, हम सबको तुम रुला गईं
खुद तो तुम परलोक सिधारीं, पर भारत को जगा गईं ।।

वस्त्र तुम्हारे गये थे फाड़े, पर  लज्जित  भारत माँ थी,
चोंटे तन पर तुमने खाईं, पर घायल तो हर माँ थी
फौलादी सीने वाले भी, पिता की काँपी आत्मा थी
मेडिकल बुलटिन में अटकी, मानो  देश की हर जां थी
मृत्यु  तुम्हारी सारे देश में, बहस नई एक चला गई,
खुद तो तुम परलोक सिधारी, पर भारत को जगा गई ।।

पुत्री तुम्हारी कुर्बानी को, व्यर्थ न अब जाने देंगे,
नर-पिशाच थर-थर कापेंगे, चैन से ना सोने देंगे
ढुलमुल सत्ताधीशों को अब, और वक्त ना हम देंगे,
कड़े बनें  कानून, सजा फाँसी की हो ये देखेंगे   
चिर-निद्रा में सोकर भी तुम, नींद हमारी  भगा गईं,
खुद तो तुम परलोक सिधारी, पर भारत को जगा गईं ।।

न्याय दिलाने में तुमको अब, जो भी रोड़ा आयेगा,
हम सबके पैरों की ठोकर से, अब नहीं बच पायेगा
संसद हो या न्यायपालिका, यही संदेशा जायेगा
शील हरण का हर अपराधी, दंड कड़ा ही  पायेगा
बूढे़, बच्चे, नौजवान क्या, सारी दिल्ली हिला गईं,
खुद तो तुम परलोक सिधारी, पर भारत को जगा गईं ।।

मात-पिता भी घर-घर में अब, पुत्र को पाठ पढ़ायेंगे,
भूल गये वे अपनी संस्कृति, फिर से याद दिलायेंगे
वीर शिवाजी-गोहरबानो,  का किस्सा बतलायेंगे, 
चरित्र खोया सब कुछ खोया, ये उनको समझाएंगे
सिंगापुर में त्याग  प्राण, दिल्ली जलने  से बचा गईं,
खुद तो तुम परलोक सिधारीं, पर भारत को जगा गईं ।।

नमन  तुम्हारी बहादुरी को, तुम्हें  नहीं भूलेंगे हम,
दिल में जलती "ज्योति" रहेगी, आंखें याद में होंगी नम  
मात-पिता को मिले तुम्हारे, सहने की शक्ति ये गम,
उनके घावों पर मरहम को, स्वतः बढ़ें आगे सब हम
ये  घटना हम सबको बेटी, अंदर तक है हिला गई,
खुद तो तुम परलोक सिधारीं, पर भारत को जगा गई  ।।


 - के0पी0 सिंह ‘‘फकीरा‘‘
     विशेष न्यायाधीश निवास
   शाजापुर (म0प्र0)

30 December 2012

हम लड़कियाँ


हम लड़कियाँ
                -वाज़दा खा़न

हम लड़कियाँ मान लेती हैं
तुम जो भी कहते हो
हम लड़कियाँ शिकवे-शिकायत
सब गुड़ी-मुड़ी कर
गठरी बनाकर
आसमान में
रुई के फाहे सा
उड़ते बादलों के ढेर में
फेंक देती हैं,
कभी तुम जाओगे वहाँ
तो बहुत सी ऐसी गठरियाँ मिलेंगी

हम लड़कियाँ
देहरी के भीतर रहती हैं
तो भी शिकार होती हैं
शायद शिकार की परिभाषा
यहीं से शुरू होती है

हम लड़कियाँ
छिपा लेती हैं अपना मन
कपड़ों की तमाम तहों में
उघाड़ते हो जब तुम कपड़े
जिहादी बनकर
मन नहीं देख पाते हो

हम लड़कियाँ
कितना कुछ साबित करें
अपने बारे में
हर बार संदिग्ध हैं
तुम्हारी नजरों में

हम लड़कियाँ
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
भूख-प्यास
बन जाती हैं तुम्हारे लिए
अजीवित प्राणी
तुम उन्हें उछाल देते हो
यहाँ-वहाँ गेंद की तरह

हम लड़कियाँ
धूल की तरह
झाड़ती चलती हैं
तुम्हारी उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान
तब जाकर पूरी होती है कहीं
तुम्हारी दी हुई आधी दुनिया

-वाज़दा ख़ान
(वाज़दा खान एक कवि और जानी मानी चित्रकार है)
कलामित्र में कविगोष्ठी



23 December 2012

रपट , संगमन-18



शब्द सत्ता की अस्मिता व प्रभाव की चिन्ता और चर्चा

हिन्दी कथा-विमर्श को समर्पित अपनी तरह के सबसे अलग संवाद-मंच ‘संगमन’  का 18वाँ समागम सोलन (हि0प्र0) की खूबसूरत पहाड़ियों पर 5120 फुट की ऊँचाई पर अवस्थित बड़ोग में 25 से 27 नवम्बर 2012 तक आयोजित किया गया। वर्ष 1993 से देश के विभिन्न शहरों में आयोजित होने वाले इस सचल वार्षिक आयोजन में इस वर्ष का विषय था ‘शब्द सत्ता’ तथा इसके संयोजक थे प्रियंवद, जबकि स्थानीय संयोजक की भूमिका निभाई कथाकार एस0आर0 हरनोट ने। पूर्व में संगमन के आयोजन कानपुर, चित्रकूट, दुधवा, धनबाद, वृन्दावन, अहमदाबाद, देहरादून, सारनाथ, श्रीडूंगरगढ़, पिथौरागढ़, जमशेदपुर, नैनीताल, ग्वालियर, उदयपुर, कुशीनगर और मांडू में सम्पन्न हुए थे। 
तीन सत्रों के इस आयोजन में उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए कथाकार हृषीकेश सुलभ ने शब्द की सत्ता पर कई तरह के प्रश्न खड़े होने की बात की। इस सत्र का आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए विनोद शाही ने शब्द की सत्ता पर उठ रहे सवालों को शाश्वत बताया। उनका मानना था कि रचनाकार शब्द सत्ता के माध्यम से मनुष्य को जड़ता से आजाद कराना चाहता है। रचनाकार भाषा के तयशुदा साँचों में सेंध लगाकर एक नई भाषा गढ़ना चाहता है क्योंकि मौजूदा साँचों पर दूसरी तरह की सत्ताओं का कब्जा हो चुका होता है और वे उससे आदमी को सम्मोहन में बाँध चुके होते है। युवा कथाकार विभास वर्मा का कहना था कि साहित्य को दूसरी सत्ताओं द्वारा दबाया जा रहा है तथा रचनात्मकता का हमारे जीवन में महत्व कम हो रहा है। उन्होंने ने कहा कि यह शब्द को बचाने का समय है न कि उसे सत्ता बनाने का। 
कथाकार तथा पाखी पत्रिका के सम्पादक प्रेम भारद्वाज की पीड़ा थी कि शब्द की सत्ता होनी चाहिए लेकिन है नहीं, जैसे जनता की सत्ता होनी चाहिए लेकिन है नहीं। उनका सवाल था कि यदि शब्द की अपनी सत्ता है तो वह दूसरी सत्ताओं की तरह दिखाई क्यों नहीं देती ? क्यों रचनाकार हाशिए पर पड़े रहे जाते हैं ? उनका मानना था कि हम जोखिम लेने से बच रहे हैं तथा बच-बचाकर चलने वाले ही मुख्य धारा में है ! 
बड़ोग के होटल पाइनवुड में आयोजित संगमन-18 का दूसरा सत्र 26 नवम्बर 12 को ‘मेरी प्रिय पुस्तक’ के बहाने शब्द सत्ता की सामर्थ्य की परख और पहचान पर केन्द्रित था। वन्दना राग द्वारा संचालित इस सत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता जॉन स्टेन बैक के उपन्यास ‘दि ग्रेप्स आफ रॉथ’ (1939) की गहरी और भावप्रवण चर्चा की । 1930 की मन्दी के बाद अमरीका में कपास के किसानों की बदहाली पर केन्द्रित इस उपन्यास से अमरीका हिल गया था तथा तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट को श्रम कानूनों में तमाम सारे बदलाव करने के लिए बाध्य होना पड़ा था ! 
सत्र की दूसरी पुस्तक थी ग्रीक भाषा की निकोस काजान्सकीज़ की औपन्यासिक कृति ‘जोरवा दि ग्रीक’ जिसकी चर्चा जितेन्द्र भाटिया ने की। अपनी वार्ता के दौरान उन्होंने दो विदेशी लेखकों के उद्धरणों के आधार पर गहराई से शब्द सत्ता की चर्चा की। ‘बिना स्मृति के हम इन्सान कहलाने लायक भी नहीं रह जाते’ (मिलान कुन्देरा) तथा ’रचकर हम मृत्यु का प्रतिरोध करते हैं’ (इवान क्लीमा) का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि रचनात्मकता का मूल स्रोत स्मृति संसार है। जब इस पर प्रहार होता है तो इससे बहुत बड़ा नुकसान होता है। 
अपनी प्रिय पुस्तक के रूप में खालिद हुसैनी के दो उपन्यासों ‘द काइट रनर’ तथा ’द थाउसेण्ड स्प्लेन्डिड सन्स’ की विस्तार से चर्चा की और कहा कि विरोध की मुद्रा में शब्द सबसे सशक्त होते हैं। हुसैनी ने अपने इन दोनों उपन्यासों के माध्यम से अफगानिस्तान की उन तमाम बेजुबान औरतों को ज़ुबान दी है जो बेज़ुबान होने के साथ-साथ बेचेहरा भी हैं। 
सत्र के अन्तिम रचनाकर के रूप में युवा कथाकार आशुतोष ने भवभूति के ’उत्तर रामचरितम’ नाटक की अत्यन्त भावप्रवण और गम्भीर विवेचना प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह नाटक राजस्व से रामत्व के हारते चले जाने की कथा है। 
इस सत्र के दौरान ही दुर्गा पब्लिक स्कूल सोलन के बच्चों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई तथा साहित्य को लेकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान रचनाकारों के साथ संवाद करते हुए प्राप्त किया। 
आयोजन का अंतिम सत्र परिसंवाद के रूप में था, जिसमें बड़ी संख्या में साहित्यकारों ने प्रतिभाग करते हुए अपनी बातें रखीं। इस सत्र के संचालक देवेन्द्र ने कहा कि कोई सत्ता ऐसी नहीं होती है जो अपने को खतरे में डालकर शब्द की सत्ता स्वीकार करे। इस सत्र का आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए भालचन्द्र जोशी ने कहा कि शब्द सत्ता और राज्य सत्ता के सम्बन्ध अत्यन्त संलिष्ट हो गए हैं। साहित्य का आदर नहीं है। जितेन्द्र भाटिया का निष्कर्ष था कि जो कुछ लिखा जा रहा है, उसमें बहुत सारा कूड़े जैसा है क्योंकि वह कोई रास्ता नहीं दिखाता। हिन्दी की 99 प्रतिशत समीक्षा स्वतःस्फूर्त न होकर किसी आग्रह या दबाव में लिखी जाती है। ऐसा लगता है कि छपे हुए शब्द का वजूद नहीं रह जाएगा। 
सत्र में भागीदारी करते हुए युवा कथाकार राम कुमार सिंह ने अपने चारों तरफ के माहौल से परेशान हो जाने की बात की तो तुलसी रमण ने टिप्पणी की कि यदि शब्द को सही जगह इस्तेमाल किया जाय तो वह आज भी असरकारी है, लेकिन उसका निरन्तर दुरुपयोग हो रहा है तथा ज्यादातर लेखक समय के बहाव में बह रहे हैं। दुर्गेश ने हिन्दी लेखकों में पारदिर्शता की कमी की बात की तो आत्मारामरंजन ने रचनाकारों की कथनी-करनी में फर्क होने तथा इस कारण अभिव्यक्ति की विश्वसनीयता पर संकट होने की बात स्वीकार की। इस कड़ी में ही रणीराम गढ़वाली ने आरोप लगाया कि पठनीयता का संकट हम लेखकों ने ही बढ़ा दिया है। बद्री सिंह भाटिया ने शब्दों के सही इस्तेमाल और रचनात्मकता को निरन्तर नवीन, विश्वसनीय और प्रभावी बनाने पर जोर दिया। 
संगमन-18 का समापन करते हुए वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार गिरिराज किशोर ने जोर देकर कहा कि प्रेमचन्द की विरासत में जो लोग लिखने का दावा करते हैं, उन्होंने प्रेमचन्द की विरासत में कुछ नहीं लिखा है। यह दूसरी तरह का बाजारवाद है जो साहित्य में घुस आया है। उन्होंने कहा कि कविता के माध्यम से ‘ाब्द सत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इसके लिए बिहारी के प्रसिद्ध दोहे- 
‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल !   
अली कली ही सों विंध्यो, आगे कौन हवाल !! 
का उद्धरण देते हुए कहा कि आज विकास की भयंकर स्थितियाँ हैं और यह दोहा आज के लिए भी सटीक बैठता है। 
आयोजन में हरिनारायण, केशव, गुरूमीत बेदी, अमरीक सिंह दीप, अरुण भारती की भी उल्लेखनीय उपस्थिति और सहभागिता रही। संगमन टीम की ओर से धन्यवाद ज्ञापन अमरीक सिंह दीप ने किया तथा स्थानीय संयोजक की हैसियत से एस०आर० हरनोट ने कृतज्ञता ज्ञापित की। 
इस अवसर पर पंकज दीक्षित व मुकेश बिजौले की कथा पोस्टर प्रदर्शनी विशेष आकर्षण का केन्द्र रही।
दिनांक 27.11.2012 को संगमन में बाहर से आये प्रतिभागियों ने 169 वर्ष पुरानी दगशाई जेल, म्यूजियम तथा पुरानी चर्च का भ्रमण किया। दगशाई जेल वर्तमान में पर्यटन स्थल के रूप में सुरक्षित रखी गयी है। महात्मा गाँधी ने भी इस जेल का दौरा किया था। ऐतिहासिक कामागाटामारू कांड के 4 आन्दोलनकारियों को यहाँ सजाएँ दी गयी थीं।  

प्रस्तुति-
कमलेश भट्ट कमल
-सी-631, गौड़ होम्स, गोविन्दपुरम,
गाजियाबाद-201013 (उ0प्र0)
मो0-9968296694






13 December 2012

संगमन -18 का समाचार




30 November 2012

माँ कबीर की साखी जैसी

"माँ कबीर की साखी जैसी" कविता को यहाँ सुन सकते हैं--


13 November 2012

दीप के पर्व पर





दीप के पर्व पर
दीप की वर्तिका
स्नेह से स्निग्ध होकर
जले इस तरह
बह चले ज्योति की
एक भागीरथी
और
उसमें नहाने लगे ज्योत्सना
हर नगर हर डगर
हर तरफ व्योम पर
खेत खलिहान में
घर में आँगन में
हर एक इंसान में
ज्योति के पर्व की
है यही कामना
दीप के पर्व की
कोटि शुभकामना

डॉ0 जगदीश व्योम

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दीप की वर्तिका जगमगाती रहे
ज्योति हर पल अँधेरे भगाती रहे
स्नेह भर भर जालाओ दिये इस तरह
रोशनी व्योम में खिलखिलाती रहे

डॉ० जगदीश व्योम


27 October 2012


मेरी एक कविता

माँ कबीर की साखी जैसी

को संगीत के साथ आप यहाँ सुन सकते हैं