-डा॰ जगदीश व्योम
वृक्ष से पूछा
अचानक एक दिन मैंने
कि तुम
धारण किया करते सदा
नूतन, नयी काया
तुम्हारी टहनियाँ, शाखें
नये पत्ते, नयी कोंपल
सभी, आश्रय दिया करते सदा
हैं क्लांत पथिकों को
बुलाती हैं तुम्हारी डालियाँ
जब राहगीरों को
तभी तुम
मुग्ध मन से फल गिरा
आतिथ्य करते हो
मगर
आकुल न जाने क्यों
पथिक की दृष्टि हो जाती
निरखता जब
तुम्हारा दमकता वैभव
नहीं वह रोक पाता है
छिपी शैतानियत मन की
उठाकर हाथ में पत्थर
चलाता है तुम्हीं पर
और तुम !
हँसकर उसे फल
दे दिया करते
बताओ !
पाठ यह
तुम सीख कर आये कहाँ से हो
तुम्हारा कौन गुरु है ?
क्या तुम्हें
शिक्षा उसी ने दी
कि तुम
सर्वस्व अपना
सौंप दो उसको
कि जो
हो अहित करने हेतु आतुर !
तुम्हारे उस गुरु को
काश !
मानव पा गया होता !!
-डा॰ जगदीश व्योम
1 comment:
बेहतरीन डा. जी।
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