04 November 2013

आँगन


-परेश तिवारी 

मेरे घर
रोज़ कुछ परिंदे आते थे
हम
सवेरे-शाम दाना जो डालते थे
छोटे से आँगन में
ढेरों परिंदे
फुदक-फुदक कर शोर मचाते ...
चहक-चहक के
घर सर पे उठा लेते
भरोसा भी बहुत जल्दी करते थे
मैं पास जाता तो
गर्दन टेढ़ी करके मुझे देखते
फिर
पैरों के पास से दाने चुग जाते
शायद
भरोसा करके
गल्ती की उन्होने…
हम
पत्थर को खुदा कहने वाले
ज़िन्दगी से
इश्क़ कैसे करते ...
आज
आसमान छूती इमारतों में
ना आँगन छोड़े हमने...
ना परिंदे...

-परेश तिवारी
हैदराबाद

[परेश अंग्रेजी में हाइकु कविताएँ लिखते हैं, हिन्दी में भी उन्होंने कविताएँ लिखी हैं, परेश की कविताओं में समूची प्रकृति के प्रति संवेदना उभर कर आती है]


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