-अश्विनी कुमार विष्णु
पुरखों ने
क्या कुछ भी नहीं सिखाया
मछलियों को ?
पानी में ही क्या कम दुश्मन हैं इनके
जो बार-बार उछले जा रही हैं हवा में
इनके हिस्से की साँसों में तर
मचल रही हैं लहरें-ही-लहरें
फिर क्यों
बार-बार उन्हें धता बताकर
भाग पड़ती हैं यूँ आसमान की ओर
क्यों बेख़बर हैं
खुली धूप खिली फ़िज़ा की हक़ीक़त से
क्यों बार-बार
कौंध जाती हैं उन आँखों में
जिनमें बचा ही नहीं इनके हिस्से का पानी
क्यों कुलाँचें भर रही हैं इस तरह
मूँगिया चट्टानों और चाँद-तारों के गगन के बीच
जो फ़ासिला है
उसे तय-फ़तह नहीं कर सकते इनके कोमल पख
क्यों हुई जा रही हैं इस क़दर बेपरवाह
क्यों नहीं समझ सक रही हैं
कि
धूपिया हवाओं में घुले हैं इनके लिए
दमघोंटू महाशून्य अथाह
पुरखों की सीख से नाता तोड़ चुकी
मछलियाँ तो नहीं हैं ये ?
बँगलों के कोनों में रखे
एक्वेरियम की रौनक़ बनना तो नहीं है इनका ख़्वाब ?
इनकी हर उमंग के पीछे
कहीं काम तो नहीं कर रही
किसी बगुले भगत की जुगत ?
हो सकता है रीझती भी हों आकाशगंगाएँ
इनके हौसलों पर
इनका यह जूनून
सुकून छीन रहा है मेरा
हालाँकि चाहता तो मैं भी हूँ
कि, मछलियाँ भरें पंछियों-सी उड़ान
आँगनों, वन-काननों की कोंपलों में
रहे उनका भी बसेरा !
-अश्विनी कुमार विष्णु
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