( दिल्ली के शिक्षा विभाग में उप, शिक्षा निदेशक के पद पर कार्यरत डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर का उराँव लोक साहित्य पर विशेष कार्य है। "उराँव जन-जाति का लोक साहित्य" शीर्षक उनकी पुस्तक चर्चित रही है। डा० कुजूर साधारण जन-जीवन के मध्य से अपनी कविताओं के कथ्य चुनती हैं और उन्हें सीधे-सीधे मुक्त छन्द कविता के रूप में प्रस्तुत करती है। "और फूल खिल उठे" उनकी कविताओं का संग्रह है। प्रस्तुत है उनके इसी संग्रह से "सुखिया की औरत" शीर्षक कविता )
सुखिया की औरत
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सुखिया की औरत
पानी धूप में
टाँड़ खेत से
लाती है
छीलकर
दूब घास।
गिरा नदी में
मार पिछोड़ी
खूब हाथ से
धोती है !
ले बोरी में
रख कर
सिर पर
बगल टोकरी
सब्जी की।
देह अर्द्ध नग्न
एक हाथ में तुम्बा
भरा बासी पानी।
दो मील का रास्ता
चलकर पहुँची बाजार
सुखिया की औरत।
छाई उदासी
घास बोल-बोल कर
बेचा चार आने के
भाव से।
कई बार बेचा है
खरबूज
परवल
करेला
भिन्डी
और मटर
पर
सुखिया की औरत ने
नहीं बेची है
इंसानियत।
-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर
सुखिया की औरत
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सुखिया की औरत
पानी धूप में
टाँड़ खेत से
लाती है
छीलकर
दूब घास।
गिरा नदी में
मार पिछोड़ी
खूब हाथ से
धोती है !
ले बोरी में
रख कर
सिर पर
बगल टोकरी
सब्जी की।
देह अर्द्ध नग्न
एक हाथ में तुम्बा
भरा बासी पानी।
दो मील का रास्ता
चलकर पहुँची बाजार
सुखिया की औरत।
छाई उदासी
घास बोल-बोल कर
बेचा चार आने के
भाव से।
कई बार बेचा है
खरबूज
परवल
करेला
भिन्डी
और मटर
पर
सुखिया की औरत ने
नहीं बेची है
इंसानियत।
-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर
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