tag:blogger.com,1999:blog-119243252024-03-24T12:40:16.431+05:30हिन्दी साहित्यसर्वाधिकार सुरक्षितUnknownnoreply@blogger.comBlogger202125tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-9209883220956064892023-08-06T17:02:00.000+05:302023-08-06T17:02:52.509+05:30लो एक बजा दोपहर हुई<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लो एक बजा दोपहर हुई<br />
चुभ गयी हृदय के बहुत पास<br />
फिर हाथ घडी की तेज सुई<br />
<br />
पिघली सडकें, झरती लपटें<br />
झुँझलायीं लूएँ धूलभरी<br />
अम्बर ताँबा, गंधक धरती<br />
बेचैन प्रतीक्षा भूलभरी<br />
किसने देखा, किसने जाना<br />
क्यों मन उमडा, क्यों आँख चुई<br />
<br />
रिक्शेवालों की टोली में<br />
पत्ते कटते पुल के नीचे<br />
ले गयी मुझे भी ऊब वहीं<br />
कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे<br />
मैंने भी एक दाँव खेला<br />
इक्का माँगा, पर खुली दुई<br />
<br />
सहसा चिंतन को चीर गयी<br />
आँगन में उगी हुई बेरी<br />
बह गयी लहर के साथ लहर<br />
कोई मेरी, कोई तेरी<br />
फिर घर धुनिए की ताँत हुआ<br />
फिर प्राण हुए असमर्थ रुई<br />
लो एक बजा दोपहर हुई<br />
<br />
<br />
-भारत भूषण</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-24338690020433423632023-08-04T10:16:00.009+05:302023-08-04T10:28:41.985+05:30मैथिलीशरण गुप्त<div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">राष्ट्कवि मैथिलीशरण गुप्त एक बार दिल्ली से झाँसी जा रहे थे, मेल छूट गई और उन्हें परिवार सहित जनता गाड़ी से रेलयात्रा करनी पड़ी... उन्होंने एक घनाक्षरी लिख डाली इस यात्रा पर... उनके हाथ से लिखी यह ऐतिहासिक कविता देख पढ़ सकते हैं। </span></div><div> -डा० जगदीश व्योम</div><div><br /></div><div><span style="color: #990000; font-size: medium;"><br /></span></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiaaseBFeTZAYt3X6XkGf_vMq-mxMlsonn4J4TAK3L4hvu70Ur-FsK1rWQ47oCZr2cUO8N5195yjQ-iTWFAdO0we1l2o8Smi_4nQ85CTZYFfVxkS3C2rRIIL8AdEvCdFLyaBeHpwzCU5vNweYskXYjyCbCjQErh1ZwMIKRXMsx8ePCkfUGzmUU/s2136/IMG_20230804_101217.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2029" data-original-width="2136" height="380" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiaaseBFeTZAYt3X6XkGf_vMq-mxMlsonn4J4TAK3L4hvu70Ur-FsK1rWQ47oCZr2cUO8N5195yjQ-iTWFAdO0we1l2o8Smi_4nQ85CTZYFfVxkS3C2rRIIL8AdEvCdFLyaBeHpwzCU5vNweYskXYjyCbCjQErh1ZwMIKRXMsx8ePCkfUGzmUU/w400-h380/IMG_20230804_101217.jpg" width="400" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">बंचित हो मेल से कुटुम्बयुत घंटो बैठ, </span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> जनता से जाने की प्रतीक्षा करता रहा</span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">भीड़ की न बात कहूँ यात्रियों का तांता बढ़-</span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> चढ़ निज काल कोठरी सा भरता रहा </span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">गेंद-बल्ले बन के बिछौने और ट्रंक चले, </span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">सम्मुख कपाल-क्रिया देख डरता रहा</span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">झाँसी में न जाने किस भाँति जीता उतरा मैं, </span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">दिल्ली से चला तो मार्ग भर मरता रहा। </span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #990000; font-size: medium;"> -मैथिलीशरण गुप्त</span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><span style="color: #990000; font-size: medium;"><br /></span></div><div style="font-family: sans-serif; text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div></div></div><br /><span style="color: #990000; font-size: medium;"><br /></span></div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-70467762615306742002023-08-04T08:21:00.000+05:302023-08-04T08:21:06.828+05:30अपना भी दर्द निराला है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">अपना भी दर्द निराला है-</div>
कुछ घर का है, कुछ बाहर का<br />
हम देश-देश घूमे, </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">आँखों में लेकर<br />
भार समंदर का<br />
<br />
स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ<br />
जागरण लिए खाली बाती<br />
मन में आकाश रामगिरि का<br />
तन की यात्रा सिंहलद्वीपी<br />
हम बोलेंगे पाषाणों से<br />
है यह अभिशाप जन्म भर का </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">अपना भी दर्द निराला है...<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><br />
मिल बैठे आम तले कर ली<br />
शाकुन्तल क्षण की अगवानी<br />
बाहों के घेरे से बढ़कर<br />
होगी क्या और राजधानी<br />
कस्तूरी मन मानता रहा<br />
बन्धन बस ढाई आखर का</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">अपना भी दर्द निराला है...</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
हमने महकाये साँसों से<br />
सूने खंडहर वे राजमहल<br />
अंगारों में उगते गुलाब<br />
पहरे के पीछे खिले कमल<br />
हम धनुष तोड़ते फिरे सदा<br />
लेकर हर भरम स्वयंवर का<br />
अपना भी दर्द निराला है<br />
कुछ घर का है, कुछ बाहर का<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> <br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>-सोम ठाकुर</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-59844513827070090552023-08-03T11:00:00.000+05:302023-08-03T11:00:00.389+05:30आजाद की माँ का अन्तिम वक्तव्य<div style="text-align: left;"> <b><span style="font-size: large;">आजाद की माँ का अन्तिम वक्तव्य</span></b></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div>(प्रस्तुत कविता एक कवि सम्मेलन के मंच पर सुनाने के उपलक्ष में स्वाधीन भारत की पुलिस ने श्रीकृष्ण सरल जी को गिरफ्तार कर लिया था)</div><div><br /></div><div><br /></div><div>मैं दीपक की बुझने वाली लो-जैसी वृद्धा हूँ,</div><div>घृणा घोटती है दम जिसका, मैं ऐसी श्रद्धा हूँ।</div><div>दिए विधाता ने जो हैं, मैं वे दिन काट रही है,</div><div>जीवित रहकर, मैं अपनी ही किस्मत चाट रही हूँ।</div><div><br /></div><div>पेट-पीठ हैं एक,भला क्या कोई भूख रही है,</div><div>पकी फसल-सी, अरे ! भूख भी दिन-दिन सूख रही है।</div><div>दूध मर गया आंचल का, पौरुष के पानी जैसा,</div><div>वर्तमान ही मुझे लग रहा, दुखद कहानी जैसा ।</div><div><br /></div><div>देश-भक्ति के जोश सरोखी, देह लट रही मेरी,</div><div>सिंह-सपूतों की गिनती-सी, उमर घट रही मेरी।</div><div>छलनी में डाले पानी-सी आस चुक गई मेरी,</div><div>दुर्दिन के सम्मान-सरीखी कमर झुक गई मेरी ।</div><div><br /></div><div>मन की विकृतियों जैसी पड़ गई झुरियाँ तन पर;</div><div>बुझी-बुझाई धूनी जैसी राख जमी चिन्तन पर ।</div><div>चिर-अतृप्त अभिलाषाओं से, बाल पक गए मेरे,</div><div>जीवन-पथ पर चलते-चलते पाँव थक गए मेरे.</div><div><br /></div><div>देश-द्रोहियों की संख्या-सा, बढ़ दुर्भाग्य रहा है,</div><div>कैसे तुम्हें बताऊँ, मैंने क्या-क्या दुःख सहा है ।</div><div>मैं माँ हूँ, जिसने अपना बेटा जवान खोया है।</div><div>उठ न सकेगा, कई गोलियाँ खाकर बह सोया है।</div><div><br /></div><div>बेटे के तन में थीं जितनी मातृ-दूध की धारें,</div><div>रण-थल में बन गई खून की वे सब प्रखर फुहारें ।</div><div>लड़ते-लड़ते खेत रहा था सिंह- सूरमा मेरा,</div><div>देख नहीं पाया आजादी का वह स्वर्ण-सवेरा ।</div><div><br /></div><div>बोले लोग, चिताओं पर मेले हर बरस लगेंगे;</div><div>मरे वतन के लिए, फूल उनकी स्मृति पर बरसेंगे।</div><div>पर अब मेले कहाँ लग रहे, कोई मुझे बताए,</div><div>कौन लद रहा, फूलों से, कोई मुझको समझाए ।</div><div><br /></div><div>जिन लोगों की लाशों पर चल कर आज दी आई,</div><div>उनकी याद बहुत ही गहरी लोगों ने दफनाई।</div><div>उनके अपने, आज रोटियों के दर्शन को तरसे</div><div>स्वर्ण- मेघ, पर और किसी के आँगन में जा बरसे ।</div><div><br /></div><div>पता नहीं था, इस धरती पर ऐसे दिन आएंगे,</div><div>नोंच - नोंचकर आजादी का मांस गिद्ध खाएंगे।</div><div>पता नहीं था, समय बदलते आँख बदल जाएगी,</div><div>मानवता की अर्थी, इतने शीध्र निकल जाएगी।</div><div><br /></div><div>एक ओर नंगी लाशों को कफन नहीं मिल पाए।</div><div>और दूसरी ओर दिवाली नित्य मनाई जाए।</div><div>क्यों न दलित-पीड़ित की आहों में उफान फिर आए,</div><div>क्यों न किसी की घुटन, आग अभिशापों की बरसाए ?</div><div><br /></div><div>क्यों न किसी की कोख पूत फिर से ऐसा जन्माए,</div><div>जो कि गरुड़ बन, महा-भयंकर नागों को खा जाए।</div><div>लगता भारत की नारी का फिर मातृत्व जगेगा,</div><div>बलिदानी वीरों का मेला फिर से यहाँ लगेगा।</div><div><br /></div><div>फिर मुझ-जैसी कोई मां, कोई आजाद जनेगी;</div><div>किसी चन्द्रशेखर की फिर यौवन-गंगा उफनेगी।</div><div>पाप- पुन्ज पर फिर विनाश - ज्वाला वह लहराएगी,</div><div>उसकी भूख किसी अन्यायी को फिर से खाएगी।</div><div><br /></div><div>अन्यायों के मस्तक पर वह फिर गोली दागेगा,</div><div>सुन उसकी विस्फोट - गर्जना फिर यह युग जागेगा।</div><div>शोषण करने वालों का आसन फिर से डोलेगा,</div><div>नया सवेरा इस धरती पर तब आँखें खोलोगा।</div><div><br /></div><div>-श्रीकृष्ण सरल</div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-52093292196150523502023-03-24T18:03:00.005+05:302023-03-24T18:04:10.279+05:30 पढ़ बेटी<div>समय–शत्रु सिर पर चढ़ आया, लड़ बेटी</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है, पढ़ बेटी ! </div><div><br /></div><div>कदम–कदम पर बिखरे काँटे ही काँटे</div><div>कुछ गैरों ने, कुछ अपनों ने हैं बाँटे</div><div>राह इन्हीं में तुझे बनानी है अपनी</div><div>पहन कवच शिक्षा का, आगे बढ़ बेटी!</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! </div><div>समय–शत्रु सिर पर... </div><div><br /></div><div>सड़ी–गली रूढ़ियाँ बदल दे जीवन की</div><div>मर्यादा में रहकर, कर अपने मन की</div><div>संकल्पों की समिधा भरकर मुट्ठी में</div><div>तू अपने प्रतिमान नवेले गढ़ बेटी !</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! </div><div>समय–शत्रु सिर पर... </div><div><br /></div><div>सेवा-भाव न अपना कम होने देना</div><div>और जु़ल्म को मत हावी होने देना</div><div>‘शिक्षा’ तेरा अस्त्र–शस्त्र है, सम्बल है</div><div>ले शिक्षा का दीप, सीढ़ियाँ चढ़ बेटी !</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! </div><div>समय–शत्रु सिर पर... </div><div><br /></div><div>तू तो दो परिवारों का उजियारा है</div><div>तेरी मुट्ठी में प्रकाश की धारा है</div><div>अंधकार के बियाबान हैं मंज़िल में</div><div>भूले से भी मत रहना अनपढ़ बेटी !</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है पढ़ बेटी! </div><div>समय–शत्रु सिर पर चढ़ आया, लड़ बेटी</div><div>तेरी ताकत सिर्फ यही है, पढ़ बेटी ! </div><div><br /></div><div>–डॉ॰ सन्तोष व्यास</div><div> </div>Unknownnoreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-83729345498064774232022-10-25T22:14:00.005+05:302022-10-25T22:14:56.998+05:30पर तुम्हें भूला नहीं हूँ<div>मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ</div><div><br /></div><div>मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ</div><div>चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,</div><div>जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्रा चूर होती,</div><div>गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,</div><div>ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का</div><div>चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे</div><div>किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,</div><div>अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता</div><div>मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी न मुझको स्वार्थपरता।</div><div>इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं</div><div>पथ नया अपना रहा हूँ</div><div>पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।</div><div><br /></div><div>ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की</div><div>और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की</div><div>विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है</div><div>एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है</div><div>शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी</div><div>तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी</div><div>ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा</div><div>ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा</div><div>इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-</div><div>गीत नूतन गा रहा हूँ</div><div>पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।</div><div><br /></div><div>सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती</div><div>क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती</div><div>जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर</div><div>प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर</div><div>अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई न अन्तर</div><div>मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर</div><div>वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर</div><div>कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर</div><div>इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-</div><div>मैं सुनाता जा रहा हूँ</div><div>पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।</div><div><br /></div><div>आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन</div><div>अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन</div><div>धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन</div><div>मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन</div><div>एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं</div><div>वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं</div><div>अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो</div><div>तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो</div><div>अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-</div><div>मैं भिगोता जा रहा हूँ</div><div>पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।</div><div><br /></div><div>आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ</div><div>यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ</div><div>सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता</div><div>भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता</div><div>पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है</div><div>कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है</div><div>'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने</div><div>और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने</div><div>बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी</div><div>यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी</div><div>चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी</div><div>हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी</div><div>नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-</div><div>गढ़ ढहाता जा रहा हूँ</div><div>पर तुम्हें भूला नहीं हूँ</div><div><br /></div><div>-शिवमंगल सिंह सुमन</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-6507626070009157142022-10-21T00:01:00.004+05:302022-10-21T00:01:18.356+05:30दीप पर्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
दीप पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ<br />
<br />
दीप के पर्व पर<br />
दीप की वर्तिका<br />
स्नेह से स्निग्ध होकर<br />
जले इस तरह<br />
बह चले ज्योति की<br />
एक भागीरथी<br />
और<br />
उसमें नहाने लगे ज्योत्सना<br />
हर नगर हर डगर<br />
हर तरफ व्योम पर<br />
खेत खलिहान में<br />
घर में आँगन में<br />
हर एक इंसान में<br />
ज्योति के पर्व की<br />
है यही कामना<br />
दीप के पर्व की<br />
कोटि शुभकामना<br />
<br />
डॉ0 जगदीश व्योम<br />
<br />
दीप पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ<br />
<br />
दीप की वर्तिका जगमगाती रहे<br />
ज्योति हर पल अँधेरे भगाती रहे<br />
स्नेह भर भर जालाओ दिये इस तरह<br />
रोशनी व्योम में खिलखिलाती रहे<br />
<br />
डॉ० जगदीश व्योम<br />
<br />
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-87363606939552740362022-10-06T10:58:00.008+05:302023-05-31T17:56:05.314+05:30कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गएकहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए<br />कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।<br /><br />जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा<br />बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।<br /><br />खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को<br />सब अपनी-अपनी हथेली जला के बैठ गए।<br /><br />दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों<br />तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br /><br />लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो<br />शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br /><br />ये सोच कर कि दरख्तों में छाँव होती है<br />यहाँ बबूल के साये में आके बैठ गए।<div><br /></div><div><span style="color: #990000; text-align: -webkit-center;">-दुष्यन्त कुमार</span><div><div align="center"><br /></div></div></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-84218695777500014072022-10-06T10:53:00.001+05:302022-10-20T23:41:24.914+05:30मत कहो, आकाश मेंमत कहो, आकाश में कुहरा घना है<br />यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।<br /><br />सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से<br />क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।<br /><br />इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है<br />हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।<br /><br />पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं<br />बात इतनी है कि कोई पुल बना है।<br /><br />रक्त वर्षों से नसों में खौलता है<br />आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।<br /><br />हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था<br />शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।<br /><br />दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है<br />आजकल नेपथ्य में संभावना है ।<br /><br /><span style="color: #990000;">-दुष्यन्त कुमार</span>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-7436614092366357882022-09-16T23:57:00.002+05:302022-09-16T23:57:08.103+05:30ये पहाड़ी औरतें<div>ये पहाड़ी औरतें</div><div><br /></div><div>ये पहाड़ी औरतें</div><div>भोर के उजास में</div><div>लगा कर विश्वास की</div><div>माथे पर बिंदिया,</div><div>पहन कर नथनी</div><div>नाक में अभिमान की,</div><div>लपेट कर पल्लू</div><div>कमर में जोश का,</div><div>चल पड़तीं काम पर</div><div>अपनी ही धुन में,</div><div>ये पहाड़ी औरतें</div><div><br /></div><div>पीठ पर ढ़ोकर</div><div>जीवन का बोझ</div><div>पहाड़ी ढलानों पर</div><div>चढ़ते-उतरते</div><div>बुनती हैं ख्वाब</div><div>कभी साथी की</div><div>याद में हुलसतीं</div><div>कभी विरही गीत</div><div>गुनगुनाती जातीं,</div><div>ये पहाड़ी औरतें</div><div><br /></div><div>रात चाँदनी में नहा</div><div>चाँद से बातें करतीं</div><div>कभी उल्हाने देतीं</div><div>कभी पूछतीं पता</div><div>परदेसी पिया का,</div><div>ये पहाड़ी औरतें</div><div><br /></div><div>सखी सहेली-सी</div><div>आशाएँ साथ लिये</div><div>हँसी-ठिठोली करतीं</div><div>रात के सूने पहर में </div><div>देख पाँवों के ज़ख्म</div><div>कराह उठती हैं</div><div>ये पहाड़ी औरतें।</div><div><br /></div><div>-रेणु चन्द्रा माथुर </div><div>केलिफोर्निया</div>Unknownnoreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-73651145589917040442022-09-15T04:10:00.002+05:302022-09-15T04:18:36.967+05:30मेरा आसमान हिंदी हो <div>ज़िंदगी का हर मानी और मान हिंदी हो </div><div>भावों का क्षितिज मेरा आसमान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>बात हम करें इसमें, बात हर सफल हो वह </div><div>तेरी-मेरी हर अभिलाषा का प्रान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>सीखते सतत रहने की ललक रहे यूँ ही </div><div>बस फले सदा फूले औ जवान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>इस चमन के फूलों की रंगतें इसी से हैं </div><div>काश! हर ग़ुँचा चाहे उस की शान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>हम लिखें सदा बोलें इस्तिमाल में लाएँ </div><div>मात्र भाषणों में ही ना बखान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>मुक्त यह बहे, उन्नति पथ चले, दुआ मेरी </div><div>हौसलों की सब बातें औ उड़ान हिंदी हो </div><div><br /></div><div>आज है दिवस-हिंदी, ख़ूब हो मुबारक वह</div><div>आज से करें कुछ यूँ हम, महान हिंदी हो॥</div><div><br /></div><div>-प्रगति टिपणीस</div><div>[मास्को, रूस] </div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-20604464462063502402022-08-08T23:23:00.004+05:302022-10-20T23:55:41.973+05:30अगर कहीं मैं घोड़ा होता<div style="text-align: left;">अगर कहीं मैं घोड़ा होता</div><div>वह भी लंबा चौड़ा होता</div><div>तुम्हें पीठ पर बैठा कर के</div><div>बहुत तेज मैं दौड़ा होता</div><div><br /></div><div>पलक झपकते ही ले जाता</div><div>दूर पहाड़ी की वादी में</div><div>बातें करता हुआ हवा से</div><div>बियाबान में आबादी में</div><div><br /></div><div>किसी झोपड़े के आगे रुक</div><div>तुम्हें छाछ और दूध पिलाता</div><div>तरह-तरह के भोले-भोले</div><div>इंसानों से तुम्हें मिलाता</div><div><br /></div><div>उनके संग जंगलों में जाकर</div><div>मीठे-मीठे फल खाते</div><div>रंग-बिरंगी चिड़ियों से</div><div>अपनी अच्छी पहचान बनाते</div><div><br /></div><div>झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे</div><div>प्यारे खरगोश दिखाता</div><div>और उछलते हुए मेमनों के संग</div><div>तुमको खेल खिालाता</div><div><br /></div><div>रात ढमाढम ढोल झ्माझ्म</div><div>झांझ नाच गाने में कटती</div><div>हरे भरे जंगल में तुम्हें</div><div>दिखाता कैसे मस्ती कटती</div><div><br /></div><div>सुबह नदी में नहा दिखाता</div><div>तुमको कैसे सूरज उगता</div><div>कैसे तीतर दौड़ लगाता</div><div>कैसे पिंडुक दाना चुगता</div><div><br /></div><div>बगुले कैसे ध्यान लगाते</div><div>मछली शांत डोलती कैसे</div><div>और टिटहरी आसमान में</div><div>चक्कर काट बोलती कैसे</div><div><br /></div><div>कैसे आते हिरन झुंड के झुंड</div><div>नदी में पानी पीते</div><div>कैसे छोड़ निशान पैर के</div><div>जाते हैं जंगल में चीते</div><div><br /></div><div>हम भी वहां निशान छोड़कर</div><div>अपन फिर वापस आ जाते</div><div>शायद कभी खोजते उसको</div><div>और बहुत से बच्चे आते</div><div><br /></div><div>तब मैं अपने पैर पटक</div><div>हिन हिन करता तुम भी खुश होते</div><div>कितनी नकली दुनिया यह अपनी</div><div>तुम सोते में भी यह कहते</div><div><br /></div><div>लेकिन अपने मुंह में नहीं</div><div>लगाम डालने देता तुमको</div><div>प्यार उमड़ने पर वैसे छू</div><div>लेने देता अपनी दुम को</div><div><br /></div><div>नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता</div><div>क्योंकि उसे खा कर तुम रोते</div><div>लेकिन सच तो यह बच्चो</div><div>तब तुम ही मेरी दुम होते।</div><div><br /></div><div>-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-51360079997857970662022-07-20T02:00:00.001+05:302022-09-15T04:20:24.303+05:30जागो फिर एक बार<div style="text-align: left;"><br /></div><div>प्यार जगाते हुए </div><div>हारे सब तारे तुम्हें</div><div>अरुण-पंख तरुण-किरण</div><div>खड़ी खोलती है द्वार-</div><div>जागो फिर एक बार!</div><div><br /></div><div>आँखे अलियों-सी</div><div>किस मधु की गलियों में फँसी,</div><div>बन्द कर पाँखें</div><div>पी रही हैं मधु मौन</div><div>अथवा </div><div>सोयी कमल-कोरकों में?-</div><div>बन्द हो रहा गुंजार-</div><div>जागो फिर एक बार!</div><div><br /></div><div>अस्ताचल चले रवि,</div><div>शशि-छवि विभावरी में</div><div>चित्रित हुई है देख</div><div>यामिनीगन्धा जगी,</div><div>एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,</div><div>आशाओं भरी मौन </div><div>भाषा बहु भावमयी</div><div>घेर रहा चन्द्र को चाव से</div><div>शिशिर-भार-व्याकुल कुल</div><div>खुले फूल झूके हुए,</div><div>आया कलियों में मधुर</div><div>मद-उर-यौवन उभार-</div><div>जागो फिर एक बार!</div><div><br /></div><div>पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,</div><div>सेज पर विरह-विदग्धा वधू</div><div>याद कर बीती बातें, </div><div>रातें मन-मिलन की</div><div>मूँद रही पलकें चारु</div><div>नयन जल ढल गये,</div><div>लघुतर कर व्यथा-भार</div><div>जागो फिर एक बार!</div><div><br /></div><div>सहृदय समीर जैसे</div><div>पोंछो प्रिय, नयन-नीर</div><div>शयन-शिथिल बाहें</div><div>भर स्वप्निल आवेश में,</div><div>आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,</div><div>सब सुप्ति सुखोन्माद हो,</div><div>छूट-छूट अलस</div><div>फैल जाने दो पीठ पर</div><div>कल्पना से कोमल</div><div>ऋतु-कुटिल </div><div>प्रसार-कामी केश-गुच्छ।</div><div>तन-मन थक जायें,</div><div>मृदु सरभि-सी समीर में</div><div>बुद्धि बुद्धि में हो लीन</div><div>मन में मन, जी जी में,</div><div>एक अनुभव बहता रहे</div><div>उभय आत्माओं मे,</div><div>कब से मैं रही पुकार</div><div>जागो फिर एक बार! </div><div> </div><div>उगे अरुणाचल में रवि</div><div>आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,</div><div>क्षण-क्षण में परिवर्तित</div><div>होते रहे प्रृकति-पट,</div><div>गया दिन, आयी रात</div><div>गयी रात, खुला दिन</div><div>ऐसे ही संसार के </div><div>बीते दिन, मास,</div><div>वर्ष कितने ही हजार-</div><div>जागो फिर एक बार!</div><div><br /></div><div>-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला</div><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-25405913752198907742022-07-13T23:27:00.008+05:302022-09-17T00:11:13.216+05:30बदनाम व्यर्थ हो जाएंगे<div style="text-align: left;">पुरवा बयार जैसे कटार </div><div>सुरबाला सा सोहे सिंगार,</div><div>मुस्काओ न मुझको निहार</div><div>बदनाम व्यर्थ हो जाएंगे, </div><div>दोनों ही कहीं खो जाएंगे।</div><div><br /></div><div>मेरा जीवन तृष्णा का घर</div><div>तुम हो तृप्ति लोक की रानी।</div><div>बिजली जैसे अंग दमकते,</div><div>रूपसि तुम हो एक कहानी ॥</div><div>मैं अन्धकार, मैं अंधकार, </div><div>करना न मुझे तुम तनिक प्यार,</div><div>कहता हूँ तुमसे बार-बार, </div><div>उपनाम व्यर्थ हो जाएंगे।</div><div><br /></div><div>मैं नदिया का बहता पानी,</div><div>लक्ष्मण रेखा तेरा गहना।</div><div>नीरवता वासना न रच दे.</div><div>आग फूस में दूरी रखना ॥</div><div>मेरी आशाएं हैं अपार, </div><div>तू मादकता का मंदिर ज्वार,</div><div>संयम ने मानी अगर हार, </div><div>कोहराम व्यर्थ हो जाएंगे।</div><div><br /></div><div>मन आराधक बना तुम्हारा,</div><div>हूर कोई हो या हो देवी।</div><div>ताजमहल की वंशज लगतीं,</div><div>बोल तुम्हारे अन्तर वेधी ॥</div><div>अब लो पुकार, दो सौंप भार, </div><div>हैं 'पवन' सदन के खुले द्वार,</div><div>यदि उतर गया यौवन ख़ुमार, </div><div>नीलाम व्यर्थ हो जाएंगे।</div><div><br /></div><div>-पवन बाथम </div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-16482664845221893302022-07-13T23:25:00.006+05:302022-09-17T00:24:20.044+05:30धूप का भेंटशुदा चश्मा<div style="text-align: left;">हाथ से छूट सड़क पर गिरा</div>धूप का भेंटशुदा चश्मा<br />हमारे सम्बंधों की तरह<br />किरिच सब<br />बिन जीवन हो गये<br />सोन दिन आये क्या<br />लो गये<br /><br />समय का खलनायक जीता<br />त्रासदी की फ़िल्में हो गईं<br />मुट्ठियों को ख़ालीपन थाम<br />पकेपन में स्याही बो गईं <br />न लौटे शकुनों के अनुमान<br />खोजने हरियाली जो गये<br />सोन दिन आये क्या<br />लो गये <br /><br />काँच के परदे के इस पार<br />साँस की घुटन सजीवन हुई<br />दृष्टि में आलेखों को बाँध<br />अस्मिता काँपी छुईमुई <br />भरे मौसम तक पहुँचे हाथ<br />अचानक पिघल हवा हो गये<br />सोन दिन आये क्या<br />लो गये<br /><br />-सुभाष वसिष्ठ Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-60884796701972421742022-07-07T21:36:00.002+05:302022-09-17T00:11:28.326+05:30जब से यह देखे हैं बतियाने नैन<div style="text-align: left;">जब से यह देखे हैं बतियाने नैन</div><div>फूलों की बरसा से बरसाते बैन</div><div>डोल गया.. डोल गया ... डोल गया मन</div><div>जीवन में आया नयापन</div><div><br /></div><div>प्यार भरे मौसम की भाषा है मौन</div><div>अन्तर पट जान गया है कितना कौन</div><div>एक दूसरे को आओ नैन मूँद देखे</div><div>जंजाली दुनिया को एक ओर फेकें</div><div>प्राण हमें एक मिला गूँगे दो तन।</div><div>जीवन में आया नयापन</div><div><br /></div><div>सांसों में घुलने लगी चम्पा की गंध</div><div>सदियों के टूट गए सारे अनुबंध</div><div>कल्पना के पंखों से आसमान छूलें</div><div>और कभी भावों के झूले पे झूले</div><div>होने पाए कभी प्रीति अपावन।</div><div>जीवन में आया नयापन</div><div><br /></div><div>अलकों संग खेल रही चन्दनी बयार</div><div>झुकी-झुकी पलको में मुस्काए प्यार</div><div>फूल से कपोल हुए शर्म से गुलाबी</div><div>मदमाते नैन लगें जन्म के शराबी</div><div>कर रहा है तुमपे पवन तन मन अर्पन</div><div>जीवन में आया नयापन </div><div><span style="white-space: pre;"> </span></div><div>-पवन बाथम</div><div><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-65172149980965331972021-09-20T14:59:00.007+05:302022-09-15T04:18:14.077+05:30 मैं कविता हूँ<div style="text-align: left;">मैं कला-कंज की लली-कली, </div><div>मैं कल कूजन हूँ कविता हूँ।</div><div>मैं सोए शिशु का सुभग हास,</div><div>में शक्ति-स्रोत हूँ सविता हूँ।।</div><div><br /></div><div>मैं हृदय-सरोवर से निकली</div><div>चंचल-गति किंचित चकित-चित्त</div><div>भावों के उन्नत-नत भू पर</div><div>चढ़ मचल-मचल फिर उतर लहर</div><div>लहरों के नूपुर के रव से</div><div>यतिमय गतिमय संगीत सुना</div><div>शब्दों के झलमल घूँघट से</div><div>अर्थों का हिमकर-मुख झलका</div><div>फिर सस्मित-सस्मित शरमाती</div><div>नयनों से नव रस छलकाती,</div><div>प्रिय सरस सिन्धु-उर में विलीन</div><div>हो जाने वाली सरिता हूँ।</div><div>मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।</div><div><br /></div><div>मैं रण में मस्त जवानों के</div><div>निज देश भक्त दीवानों के</div><div>कर में धृत कठिन कृपाणों को</div><div>बरछी भालों को, वाणों को</div><div>झन-झन करती तलवारों को</div><div>दुश्मन की छाती फाड़ रक्त</div><div>पाई तेगा की धारों को</div><div>अति तृप्त दीप्त करने वाली</div><div>जागृत ज्वाला भरने वाली</div><div>मृत्युंजय वीर प्रसूता हूँ।</div><div>में कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।</div><div><br /></div><div>मैं ज्ञान-भक्ति की जननी हूँ</div><div>वैराग्य सिखाने वाली हूँ।</div><div>शिव, सत्य और सुन्दरता से</div><div>सिंचित भू की हरियाली हूँ।</div><div>में प्रेम दीवानी मीरा के</div><div>दृग की अनुरंजित लाली हूँ।</div><div>मैं अनहद नाद कबीरा का</div><div>कीर्तन की बजती ताली हूँ।</div><div>मैं धर्मप्राण धरती के कण-</div><div>कण में भगवान जगाती हूँ।</div><div>मैं ऊँच-नीच का भेद मिटा</div><div>कर, गीत प्रेम के गाती हूँ।</div><div>में मरणोन्मुख मानवता को</div><div>अमरत्व दान देने वाली</div><div>मैं सघन तिमिर को भेद</div><div>जगत में प्रभापुंज भरने वाली, </div><div>मैं त्रिगुण-शक्ति संयुक्त, </div><div>भक्ति-रस-अमृत से सम्पृक्ता हूँ।।</div><div>मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।</div><div><br /></div><div>मै चन्द्रमुखी मृगनयनी के</div><div>क्वारे गालों की अरुणाई।</div><div>मैं अंगराग में रची बसी</div><div>मधु मदिर गंध वाली काया-</div><div>की कसमस करती तरुणाई।</div><div>मैं निर्जन कुंज-कछारों में, </div><div>मद भरे उष्ठ अभिसारों में,</div><div>रीझों-खीझों, मनुहारों में, </div><div>यौवन की मस्त बहारों में,</div><div>जन-संकुल गृह में लज्जावश</div><div>गुपचुप नयनों की बातों में,</div><div>प्रेषित पतिकाओं के द्वारा</div><div>कठिनाई से कटने वाली</div><div>घन घुमड़-घुमड गर्जित असाढ़ </div><div>की तप्त फुहारी रातों में,</div><div>बसने वाली श्रृंगार प्रिया</div><div>मैं रीति बद्ध, मैं रीति मुक्त</div><div>बहु अलंकार संयुक्ता हूँ।</div><div>मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।।</div><div><br /></div><div>मैं राष्ट्र-भक्ति से ओत-प्रोत</div><div>स्वर्णिम अतीत के पृष्ठों पर</div><div>अंकित पठनीय कहानी हूँ।</div><div>में सघन वेदना में जन्मी</div><div>कोमल करुणा कल्याणी हूँ।</div><div>मैं जिज्ञासा-कुण्ठा से युत</div><div>अंतर्मन की आकुलता हूँ।</div><div>अनजाने प्रियतम से मिलने</div><div>की आश भरी आतुरता हूँ।</div><div>मैं प्रगति मुखी अँगड़ाई में,</div><div>संपूर्ण क्रांति के मंत्रों में</div><div>काँटों पर टँगी रोशनी के</div><div>रंगीन घोषणा-पत्रों में</div><div>अनुरक्त व्यक्त होने वाली</div><div>कल-कांत कामिनी कविता हूँ।</div><div>मैं कविता हूँ, मैं कविता हूँ।</div><div><br /></div><div>-ईश्वरी यादव</div><div>(आजकल/जून, 1992)</div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-68215552010593290822021-05-29T18:07:00.004+05:302021-05-29T18:07:57.101+05:30See this link<div style="text-align: left;"> https://www.amarujala.com/kavya/irshaad/hindi-poem-here-of-jagdish-vyom-presented-by-kavya?page=6</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-43446067499035445382021-05-17T10:15:00.011+05:302022-09-17T00:31:51.890+05:30व्यथा एक जेबकतरे की <div style="text-align: left;"><br /></div><div>कोरोना से प्यारे अपना क्या हाल हो गया</div><div>जेबें ढीली पड़ गईं</div><div> और</div><div>पेट से पीठ का मिलन हो गया।</div><div>पॉकेटमार नाम है अपना</div><div>और</div><div>राम नाम जपना पराया माल हो अपना।</div><div>अच्छा धंधा था </div><div>यह अपना</div><div>लोगों की भारी भारी जेबों को</div><div>'हाथ की सफाई' से हल्की करना</div><div>फिर चैन से खाना-पीना और सोना।</div><div>अब कोरोनाकाल में</div><div>वही हाथ धो धो क </div><div>ये 'कलाकार' निढाल हो गया।</div><div>कोरोना से प्यारे अपना....</div><div><br /></div><div>जब नगर में दिन प्रतिदिन</div><div>लगते थे कई कई ठेले मेले</div><div>खुशी-खुशी उनमें हमने</div><div>कई कई बार हैं धक्के झेले</div><div>लोगों की जेबों पर अपनी</div><div>उंगलियों की कृपा बरसाई</div><div>इन हाथों, न जाने कितने</div><div>बटुओं और नोटों की </div><div>जान है बचाई।</div><div>एक अरसा हो चुका है यहांँ</div><div>हरियाली देखे हुए</div><div>हरा-भरा मैदान अब रेगिस्तान हो गया</div><div>कोरोना से प्यारे.....</div><div><br /></div><div>हाथों की कसरत नहीं हुई है</div><div>कलाइयांँ व उंगलियाँ अकड़ गईं हैं</div><div>लोगों की रेलमपेल देखने को</div><div>अखियाँ तरस गई हैं</div><div>फाका द्वार पीट रहा है</div><div>धंधा खटिया पकड़े हुए हैं</div><div>अच्छा खासा सुखी जीवन</div><div>बदहाल हो गया ।</div><div>कोरोना से प्यारे......</div><div><br /></div><div>सूने हैं मस्जिद, मन्दिर</div><div>और गिरजाघर, गुरुद्वारे</div><div>भटक रहे हैं ब्लेड सहित</div><div>गली-मोहल्ले द्वारे द्वारे</div><div>खाली हाथ लौट-लौटकर</div><div>हम मरीज और कमरा अपना</div><div>आज अस्पताल हो गया।</div><div>कोरोना से प्यारे....</div><div><br /></div><div>किसको सुनाएँ दुखड़ा अपना</div><div>किसे पढाएंँ यह अफसाना</div><div>हम मेहनतकश बंदों की</div><div>इतनी अच्छी कला का</div><div>बंटाढार हो गया।</div><div>कोरोना से प्यारे अपना</div><div>क्या हाल हो गया।</div><div><br /></div><div>-डा० रामकुमार माथुर</div><div>अजमेर, राजस्थान.</div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-66085225447960599072021-05-10T12:25:00.003+05:302022-09-15T04:12:13.670+05:30मुक्तक <div style="text-align: left;">कर्म का दीप जला जाता है। </div><div style="text-align: left;">दर्द का शैल गला जाता है। </div><div style="text-align: left;">वक्त को कौन रोक पाया है, </div><div style="text-align: left;">वक्त आता है, चला जाता है।। </div><div><br /></div><div>-डॉ अशोक अज्ञानी </div>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-25011769074780514102020-11-29T15:18:00.003+05:302022-09-17T00:25:04.159+05:30औरतें<div style="text-align: left;"><br /></div><div>कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी</div><div>ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है</div><div>और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं</div><div>ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है</div><div>मैं कवि हूँ, कर्ता हूं, क्या जल्दी है</div><div>मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ</div><div>औरतों की अदालत में तलब करूंगा</div><div>और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा</div><div>मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूगा,</div><div>जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं</div><div>मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा</div><div>जिन्हें लेकर फौजें और तुलबा चलते हैं</div><div>मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा</div><div>जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होगी</div><div>मैं उन औरतों को</div><div>जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर</div><div>और चिता में जलकर मरी हैं</div><div>फिर से जिंदा करूंगा और उनके बयानात</div><div>दोबारा कलमबंद करूंगा</div><div>कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?</div><div>कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया?</div><div>कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?</div><div>क्योंकि में उस औरत के बारे में जानता हूं</div><div>जो अपने सात बित्ते की देह को एक बिते के आंगन में</div><div>ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झांका तक नहीं</div><div>और जब बाहर निकली वह तो कहीं उसकी लाश निकली</div><div>औरत की लाश धरती माता की तरह होती है</div><div>जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक</div><div>औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं</div><div>औरते रोती है. मरद और मारते हैं</div><div>औरतें खूब जोर से रोती है।</div><div>मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं</div><div>इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे</div><div>सबसे पहले जलाया गया?</div><div>में नहीं जानता</div><div>लेकिन जो भी रही हो मेरी मां रही होगी,</div><div>मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी</div><div>जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?</div><div>मैं नहीं जानता</div><div>लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी</div><div>और यह मैं नहीं होने दूंगा।</div><div><br /></div><div>-रमाशंकर यादव विद्रोही</div><div><div>(3 दिस.1957- 8 दिस.2015) </div><div><br /></div></div>Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-76288428651460186122020-07-23T09:01:00.003+05:302020-07-23T09:01:56.283+05:30Alha<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हिआँ कि बातइँ हिअनइँ छोड़उ, अब आगे को सुनउ हबाल।<br />
खोलि पत्तिरा देखन लागे, अउ ज्युतिस को करइँ विचार।<br />
साइति अबहीं अति नीकी हइ, अइपनबारी देउ पठाइ।<br />
हाँत जोरि के रुपना बोलो, दादा सुनउँ हमारी बात।<br />
मेरे भरोसे मइँ ना रहिअउ, मइँ ना मूँड़ कटइहउँ जाइ।<br />
जालिम राजा नइनागढ़ को, जाकी मारु सही ना जाइ।<br />
तड़पे ऊदन तब रुपना पइ, रुपना सुनिलेउ बात हमारा।<br />
नउकर-चाकर तुमइँ न जानों, तुम तउ भइआ लगउ हमारा।<br />
आल्हा ब्याहन कउ ना रहिअइँ, बातइँ कहिबे कउ रहि जाइँ।<br />
रुपना बोलइ तब मलिखे सइ, दादा सुनउ हमारी बात।<br />
घोड़ा करिलिया आल्हा बारो, सो मोइ आप देउ मँगवाइ।<br />
अइपनबारी तउ लइ जइहउ,ँ जो दइ देउ ढाल तलवार।<br />
सब हथियार दए मलिखे नइँ, अउ दइ दई ढाल तलवार।<br />
रुपना करिलिया पइ चढ़ि बइठो, नइनागढ़ मइँ पहुँचो जाइ।<br />
तब दरमानी बोलन लागो, ओ परदेसी बात बताउ।<br />
कहाँ सइ आए हउ, कहाँ जइहउ, अपनो कहउ देस को नाउँ।<br />
देसु हमारो नगर महाबो, जहँ पइ बसइ रजा परमाल।<br />
आल्हा ब्याहन कउ आए हइँ, रुपना बारी नामु हमार।<br />
अइपन बारी हम लाए हइँ, राजइ खबरि सुनाबउ जाइ।<br />
साइति बीतति हइ दुआरे की, हमरो नेगु देउ मँगबाइ।<br />
कहा नेगु द्वारे को चहिए, राजइ खबरि सुनाबइँ जाइ।<br />
रुपना बोलो दरमानी सइ, अइसी कहउ जाइ महराज।<br />
चारि घरी भरि चलइ सिरोही, द्वारे बहइ रकत की धार।<br />
इतनी सुनिके दरमानी नइँ, राजइ खबरि सुनाई जाइ।<br />
अइपनबारी बारी लाओ, अउ द्वारे पइ पहुँचो आइ।<br />
आल्हा ब्याहन कउ आए हइँ, झण्डा धुरे दओ गड़वाइ।<br />
झिगरइ नेगी दरबाजे पइ, द्वारे कठिन चलइ तलवारि।<br />
अइसो नेगी मइँ ना देखो, मोपइ कूछ कही ना जाइ।</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-85226547071658459242020-05-12T16:06:00.001+05:302022-09-17T00:18:30.656+05:30घरबंदी में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: right;">
=गीत =</div>
<span style="color: #660000; font-size: large;">घरबंदी में</span><br />
<br />
अहा! कुदरती छटा!<br />
तुम्हारा अभिनन्दन है।<br />
<br />
पहले गरलपान करना मज़बूरी थी<br />
हवा प्रदूषित थी, कितनी ज़हरीली थी<br />
शीतल-मंद-सुगंध पवन अब है अमृत<br />
पहले आँखें जलन भरी थीं, गीली थीं<br />
मलय समीर सुवासित है<br />
चंदन-चंदन है।<br />
<br />
पहले कहाँ दिखाई देती गौरैया<br />
अब तो चीं-चीं चहक देख इठलाता हूँ<br />
सुबह-शाम दाना-पानी हूँ रख देता<br />
देख फुदकती, गौरैया हो जाता हूँ<br />
पाखी बन उड़ान भरता<br />
यह पाखी मन है।<br />
<br />
देख भौंकते कुत्ते को गुस्सा हो आता<br />
खलल नींद में पड़ती थी तो था झल्लाता<br />
रोज उसे रोटी देना जब शुरू किया<br />
लावारिस होकर भी पूँछ हिला जाता<br />
पौधों को दुलराने से<br />
ही मन प्रसन्न है।<br />
<br />
घरबंदी में बंद हुआ जब से घर में<br />
दिल का दरवाजा खुलता ही चला गया<br />
नज़रबंद होने पर मन की आँख खुली<br />
अब तक तो अपनों के हाथों छला गया<br />
कुदरत के संग जीना<br />
ही सच्चा जीवन है।<br />
अहा! कुदरती छटा!<br />
तुम्हारा अभिनन्दन है।<br />
<br />
-भगवती प्रसाद द्विवेदी </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-63615577617155639382020-04-21T09:37:00.001+05:302022-09-15T04:21:19.360+05:30जंग लड़ेंगे हम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: large;">जंग लड़ेंगे हम</span><br />
<br />
जंग वायरस ने छेड़ी है<br />
जंग लड़ेंगे हम<br />
और जंग में<br />
विजयी होकर ही<br />
निकलेंगे हम ।<br />
<br />
घर में रहकर<br />
वाच करेंगे<br />
इसकी चालों को<br />
आश्रय देंगे<br />
भूखे, प्यासे,<br />
बिन घरवालों को<br />
कर इसको कमजोर<br />
प्राण इसके<br />
हर लेंगे हम ।<br />
<br />
अजब तरह का<br />
ये दुश्मन है<br />
कुशल खिलाड़ी है<br />
छोटा है पर<br />
छिपी पेट में<br />
इसके दाढ़ी है<br />
छिपकर<br />
वार कर रहा है,<br />
लेकिन सँभलेंगे हम ।<br />
<br />
घुट्टी पीकर<br />
चला चीन से<br />
दुनिया में छाया<br />
पूरा विश्व<br />
अभी तक इसको<br />
पकड़ नहीं पाया<br />
बड़े जतन से<br />
जाल बिछा<br />
इसको जकड़ेंगे हम ।<br />
<br />
मचा हुआ कुहराम<br />
हर जगह<br />
बाहर औ भीतर<br />
कोस रही है<br />
दुनिया इसको<br />
पानी पी-पीकर<br />
डरना नहीं<br />
व्योम इससे<br />
जल्दी उभरेंगे हम ।<br />
जंग वायरस ने छेड़ी है ......<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
<div>
<br /></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-11924325.post-50115345525725734322019-03-24T16:06:00.002+05:302022-09-17T00:05:57.495+05:30फागुन सब क्लेश हरत गुइयां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
फागुन सब क्लेश हरत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयां<br />
<br />
चुन्हरि पै सात हू रंग सजें<br />
कहूं ढोल मंजीरे मृदंग बजें<br />
रसिया बर जोरी करत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयां<br />
<br />
सन सननन पवन हरत बाधा<br />
झूम झननन नाचति है राधा<br />
दुःख, दारिद्रय दैन्य जरत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ<br />
<br />
कोई दौरि बचे नहिं नौरि बचे<br />
चौपारि बचै नहिं पौरि बचे<br />
रंग सों सरबोर करत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ<br />
<br />
अभिमान द्वेष और दम्भ कढ़ैं<br />
हिय सो ई मिलिके नेह बढ़ै<br />
सब गरब गुमान गरत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयाँ<br />
<br />
मर्यादा कौने में डारो<br />
भीतर बाहर सब रंगि डारो<br />
सब ऐसी ढरनि ढरत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयां<br />
<br />
गोपी को मन कान्हा भांपे<br />
धरती नाचै अम्बर काँपै<br />
मन ऐसी कुलांच भरत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयां<br />
<br />
नहीं जोरु चलै कछू छैलन पै<br />
मलि देत अबीर कपोलन पै<br />
गोरी अर र र अरर करत गुइयां<br />
रस झर-झर झरर झरत गुइयां<br />
<br />
-डॉ० रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’</div>
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