मन होता है पारा
ऐसे देखा नहीं करो
जाने तुमने क्या कर डाला
उलट-पुलट मौसम
कभी घाव ज्यादा दुखता है
और कभी मरहम
जहाँ-जहाँ ज्यादा दुखता है
छूकर वहीं दुबारा
ऐसे देखा नहीं करो
यह मुसकान तुम्हारी
डूबी हुई शरारत में
उलझा-उलझा खत हो जैसे
साफ इबारत में
रह-रह कर दहकेगा
प्यासे होठों पर अंगारा
ऐसे देखा नहीं करो
कौन बचाकर आँख
सुबह की नींद उघार गया
बूढे सूरज पर पीछे से
सीटी मार गया
हम पर शक पहले से है
तुम करके और इशारा
ऐसे देखा नहीं करो
होना-जाना क्या है
जैसा कल था वैसा कल
मेरे सन्नाटे में बस
सूनेपन की हलचल
अँधियारे की नेमप्लेट पर
लिख-लिख कर उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो
-रामानंद दोषी
2 comments:
आपने लिखा....
हमने पढ़ा....
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए शनिवार 06/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
मन होता है पारा...एक दम तरल..सच!!!!
सुन्दर भाव..
अनु
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