हाइकु कविताएँ
छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसेंगे गिद्ध.
धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमें.
सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये.
मैं न बोलूँगा
बोलेंगी कविताएँ
व्यथा मन की.
यूँ ही न बहो
पर्वत सा ठहरो
मन की कहो.
पतंग उड़ी
डोर कटी बिछुड़ी
फिर न मिली.
: डा० जगदीश व्योम :
2 comments:
जगदीश जी
आपकी हाइकु पढ़कर बिलकुल ख़ुश हो गया. कभी सोचा ही नहीं था, हिंदी में हाइकु होती है!!
मगर नियमित तौर हाइकु कविता में ऋतु-वर्णात्मक शब्द ( जिसे जापानी में "季語 किगो" कहते हैं ) का एक ज़िक्र करना ज़रूरी तो नहीं? कैसी होती है?
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