अपना भी दर्द निराला है-
कुछ घर का है, कुछ बाहर काहम देश-देश घूमे,
आँखों में लेकर
भार समंदर का
स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ
जागरण लिए खाली बाती
मन में आकाश रामगिरि का
तन की यात्रा सिंहलद्वीपी
हम बोलेंगे पाषाणों से
है यह अभिशाप जन्म भर का
भार समंदर का
स्वप्नों में अर्द्धकंदराएँ
जागरण लिए खाली बाती
मन में आकाश रामगिरि का
तन की यात्रा सिंहलद्वीपी
हम बोलेंगे पाषाणों से
है यह अभिशाप जन्म भर का
अपना भी दर्द निराला है...
मिल बैठे आम तले कर ली
शाकुन्तल क्षण की अगवानी
बाहों के घेरे से बढ़कर
होगी क्या और राजधानी
कस्तूरी मन मानता रहा
बन्धन बस ढाई आखर का
मिल बैठे आम तले कर ली
शाकुन्तल क्षण की अगवानी
बाहों के घेरे से बढ़कर
होगी क्या और राजधानी
कस्तूरी मन मानता रहा
बन्धन बस ढाई आखर का
अपना भी दर्द निराला है...
हमने महकाये साँसों से
सूने खंडहर वे राजमहल
अंगारों में उगते गुलाब
पहरे के पीछे खिले कमल
हम धनुष तोड़ते फिरे सदा
लेकर हर भरम स्वयंवर का
अपना भी दर्द निराला है
कुछ घर का है, कुछ बाहर का
-सोम ठाकुर
1 comment:
बहुत ही सुन्दर सुमधुर अनूठा गीत .मंजुल भटनागर
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