11 April 2011

देर है मगर अंधेर नहीं

सड़क के एक छोर से
दूसरे छोर तक जाते हैं
फिर लौट आते हैं
किधर जाना है
समझ नहीं पाते हैं

मरुस्थल में जल कहाँ !
हमें भी पता है
फिर भी गाहे वगाहे
मृगतृष्णा के शिकार
हो ही जाते हैं।

इधर उधर भटक कर
आखिर देर सबेर
फिर स्वयं को पूर्व स्थिति में पाते हैं
पछताते हैं
फिर प्रारब्ध मानकर
खुद को बहलाते हैं
पुनः आशा, आस्था और
विश्वास जुटाते हैं।

किसी तरह रात बिताते हैं
नए सूरज के इंतजार में
कि सुबह होने में थोड़ी देर है
यह सोचकर
राहत सी पाते हैं।
आज भी
देर है
मगर
अंधेर नहीं।

-डा० एम०पी० सिंह
सहायक प्रोफेसर
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
वीसलपुर

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