12 May 2020

घरबंदी में

=गीत =
घरबंदी में

अहा! कुदरती छटा!
तुम्हारा अभिनन्दन है।

पहले गरलपान करना मज़बूरी थी
हवा प्रदूषित थी, कितनी ज़हरीली थी
शीतल-मंद-सुगंध पवन अब है अमृत
पहले आँखें जलन भरी थीं, गीली थीं
मलय समीर सुवासित है
चंदन-चंदन है।

पहले कहाँ दिखाई देती गौरैया
अब तो चीं-चीं चहक देख इठलाता हूँ
सुबह-शाम दाना-पानी हूँ रख देता
देख फुदकती, गौरैया हो जाता हूँ
पाखी बन उड़ान भरता
यह पाखी मन है।

देख भौंकते कुत्ते को गुस्सा हो आता
खलल नींद में पड़ती थी तो था झल्लाता
रोज उसे रोटी देना जब शुरू किया
लावारिस होकर भी पूँछ हिला जाता
पौधों को दुलराने से
ही मन प्रसन्न है।

घरबंदी में बंद हुआ जब से घर में
दिल का दरवाजा खुलता ही चला गया
नज़रबंद होने पर मन की आँख खुली
अब तक तो अपनों के हाथों छला गया
कुदरत के संग जीना
ही सच्चा जीवन है।
अहा! कुदरती छटा!
तुम्हारा अभिनन्दन है।

-भगवती प्रसाद द्विवेदी 

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