29 June 2014

मैं घना छतनार बरगद हूँ

-भारतेन्दु मिश्र

मैं घना छतनार बरगद हूँ
जड़ें फैली हैं
अतल-पाताल तक

अनगिनत आए पखेरू
थके माँदे द्वार पर
उड़ गए अपनी दिशाओं में
सभी विश्राम कर
मैं अडिग-निश्चल-अकम्पित हूँ
जूझकर लौटे
कई भूचाल तक

जन्म से ही
ग्रीष्म वर्षा शीत का
अभ्यास है
गाँव पूरा जानता
इस देह का इतिहास है
तोड़ते पल्लव
जटायें काटते
नोचते हैं लोग
मेरी खाल तक

अँगुलियों से फूटकर
मेरी जड़ें बढ़ती रहीं
फुनगियाँ आकाश की
ऊँचाइयाँ चढ़ती रहीं
मैं अमिट
अक्षर सनातन हूँ
शरण हूँ मैं
लय विलय के काल तक

-भारतेन्दु मिश्र

5 comments:

डॉ 0 विभा नायक said...

Bahut khoob sir

भारतेंदु मिश्र said...

आभार आपका। कि आपको यह गीत पसन्द आया।

जय चक्रवर्ती said...

बहुत खूबसूरत गीत .मेरी अशेष वधाई.
जय चक्रवर्ती

दिगम्बर नासवा said...

जीवन भी विशाल बरगद सा हो जाए तो सफल है ... लाजवाब रचना ...

BLOGPRAHARI said...

आपका ब्लॉग देखकर अच्छा लगा. अंतरजाल पर हिंदी समृधि के लिए किया जा रहा आपका प्रयास सराहनीय है. कृपया अपने ब्लॉग को “ब्लॉगप्रहरी:एग्रीगेटर व हिंदी सोशल नेटवर्क” से जोड़ कर अधिक से अधिक पाठकों तक पहुचाएं. ब्लॉगप्रहरी भारत का सबसे आधुनिक और सम्पूर्ण ब्लॉग मंच है. ब्लॉगप्रहरी ब्लॉग डायरेक्टरी, माइक्रो ब्लॉग, सोशल नेटवर्क, ब्लॉग रैंकिंग, एग्रीगेटर और ब्लॉग से आमदनी की सुविधाओं के साथ एक
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