06 October 2011

कुण्डलियां

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
कुण्डलियां
 --( 1 )--
जैसा चाहो और से, दो औरों को यार।
आवक जावक के जुडे़, आपस मे सब तार।।
आपस मे सब तार, गणित इतना ही होता।।
मिलती वैसी फसल, बीज जो जैसे बोता।।
ठकुरेला’ कवि कहें, नियम इस जग का ऐसा।।
पाओगे हर बार, यार बॉंटोगे जैसा।।




--( 2 )

धन की महिमा अमित है, सभी समेटें अंक।
पाकर बौरायें सभी, राजा हो या रंक।।
राजा हो या रंक, सभी इस धन पर मरते।।
धन की खातिर लोग, न जाने क्या क्या करते।।
ठकुरेला’ कवि कहें, कामना यह हर जन की।।
जीवन भर बरसात, रहे उसके घर धन की।।

No comments: