13 August 2011

कि तुम मुझे मिलीं

-रामानन्द दोषी
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन
कि दीप को प्रकाश-रेख
चाँद को नई किरन ।

कि स्वप्न-सेज साँवरी
सरस सलज सजा रही
कि साँस में सुहासिनी
सिहर-सिमट समा रही

कि साँस का सुहाग
माँग में निखर उभर उठा
कि गंध-युक्त केश में
बँधा पवन सिहर उठा

कि प्यार-पीर में विभोर
बन चली कली सुमन
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन ।

कि प्राण पाँव में भरो
भरो प्रवाह राह में
कि आस में उछाह सम
बसो सजीव चाह में

कि रोम रोम रम रहो
सरोज में सुबास-सी
कि नैन कोर छुप रहो
असीम रूप प्यास-सी

अबाध अंग-अंग में
उफान बन उठो सजनि
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन ।

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