03 June 2011

2 पलाश-गीत

पलाश-गीत

          डा० जीवन शुक्ल

ढाक के तीन पात थे
वो भी अब खो गये
पसई के चाउर से
सपने हम बो गये ।

जंगल का बिरवा था
बस्ती ने खा लिया
आग को पानी की
मस्ती ने पा लिया

उजड़े वीराने तो
शहरों के वंश बढ़े
पेड़ों में नव पलाश
जागे थे, सो गये ।


निर्धन की आँखों में
टेसू सा सपना है
दहक रहे सूरज से
उपवन का दहना है

डालों पर अंगारे
आँखों में सूरज है
जेठ के अंधड़ में
सपने सब खो गये ।

लाल से अधरों पर
पीली सी वंशी है
ढाक की गोद में
किरनों का अंशी है

गाँव के बाहर भी
सावन जी लेता है
फूलों के पाहुन भी
फागुन से हो गये ।


पलाश गीत २

डा० जीवन शुक्ल


मुझे दोष देने से पहले
दर्पन तो देखो
तन गुलाब का
मन पलाश का
मुझे बुलाता है ।

दीवाली में टेसू राजा
घर घर जाते हैं
बुझे हुये मावसी घरों में
दीप जलाते हैं

मुझे दोष देने से पहले
मौसम तो देखों
पुरवा का तन
पावस का मन
क्या समझाता है ।

रंगों में फूलों की मस्ती
घुल कर छाती है
आँचल से बिछुरी अँगिया
दरबार सजाती है

मुझे दोष देने से पहले
पाहुन तो देखो
मन का भृंगी
गीत तरंगी
किसे सताता है ।

मुझे लग रहा जग सारा
यह बन पलाश का है
बिना छुये जो डस जाये
वह तन वताश का है

मुझे दोष देने से पहले
अपने को देखो
वीणा सा तन
सरगम सा मन
गीत सुनाता है ।

- डा० जीवन शुक्ल
ग्वाल मैदान
कन्नौज- 209725

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