02 June 2011

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के दोहे

खड़े बिजूके खेत में, बनकर पहरेदार।
भोले-भाले डर रहे, चतुर चरें सौ बार।।

बहेलिया और चील में, पनपा गहरा मेल।
कबूतरों के साथ में, खेलें खेल गुलेल।।

जीवन असमंजस भरा, किस पर हो विश्वास।
अपनों की ही जड़ यहाँ, खोद रहे हैं खास।।

चार शोहदे साथ में, मुखिया उसका बाप।
जब जी चाहे वह निडर, करता रहता पाप।।

टुकड़ा टुकड़ा जिन्दगी, मना रही है खैर।
आँगन आँगन हो रहीं, बातें बे-सिर-पैर।।

समझ गया है मेमना, अब शेरों की चाल।
बिना बात दुहरायेंगे, फिर फिर वही सवाल।।

कौंध रही हैं बिजलियाँ, हालत हैं विपरीत।
मन की कोयल डर रही, कैसे गाये गीत।।

तिनका तिनका जोड़ कर, बया बनाये नीड़।
जब जी चाहे तोड़ दे, उसको पागल भीड़।।

दुविधा की गठरी लिये, सीता हुई उदास।
निरपराध को राम ही, भेज रहे वनवास।।

यह गरीब की झोंपड़ी, साँझ खड़ी है मौन।
खाने के लाले यहाँ, दीप जलाये कौन।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
बंगला संख्या एल-९९
रेलवे चिकित्सालय के सामने
आबू रोड-307026(राजस्थान)

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