27 June 2009

हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण

हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण

हिन्दी संघ और कुछ राज्यों की राजभाषा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के भीतर और बाहर हिन्दी सीखने वालों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हो जाने के कारण हिन्दी वर्तनी की मानक पद्धति निर्धारित करना आवश्यक और कालोचित जान पड़ा ताकि हिन्दी शब्दों की वर्तनियों में अधिकाधिक एकरूपता लाई जा सके। तदनुसार, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार ने १९६१ में हिन्दी वर्तनी की मानक पद्धति निर्धारित करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की। इस समिति बनाई जिसने अप्रैल १९६२ में अंतिम रिपोर्ट दी। इस समिति के सदस्यों की सूची परिशिष्ट में दी गई है।
समिति की चार बैठकें हुईं जिनमें गंभीर विचार-विमर्श के बाद वर्तनी के संबंध में एक नियमावली निर्धारित की गई। समिति ने तदनुसार, १९६२ में अपनी अंतिम सिफारिशें प्रस्तुत कीं जो सरकार द्वारा अनुमोदित रूप में नीचे दी जा रही हैं-

1. हिन्दी के विभक्ति-चिह्न सर्वनामों के अतिरिक्त सभी प्रसंगों में प्रातिपदिक से प्रथक लिखे जाएँ। जैसे राम ने, स्त्री को,मुझ को।
परन्तु प्रेस की सुविधाओं को ध्यान में रखकर पत्र-पत्रिकाओं में संज्ञादि शब्दों में भी विभक्तियाँ मिलाने की छूट रहे।

अपवाद-
(क) सर्वनामों के साथ यदि दो विभक्ति-चिह्न हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक लिखा जाए। जैसे- उसके लिए, इसमें से।

(ख) सर्वनाम और विभक्ति के बीच "ही" , "तक" आदि का निपात हो तो विभक्ति को पृथक लिखा जाए, जैसे- आप ही के लिए, मुझ तक को।

२. संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगभूत क्रियाएँ पृथक-पृथक लिखी जाएँ, जैसे- पढ़ा करता है, आ सकता है।

३. "तक", "साथ" आदि अव्यय सदा पृथक लिखे जाएँ, जैसे- आपके साथ, यहाँ तक ।

४. पूर्वकालिक प्रत्यय "कर" क्रिया से मिलाकर लिखा जाए, जैसे- मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर।

५. द्वंद्व समास में पदों के बीच में हाइफन रखा जाए, जैसे- राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती-संवाद।

६. सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफन रखा जाए, जैसे- तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।

७. तत्पुरुष समास में हाइफन का प्रयोग केवल वहीं किया जाए, जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं, जैसे- भू-तत्त्व, रामराज्य।

८. जहाँ श्रुतिमूलक य-व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए, अर्थात् किए- गये, नई-नयी, हुआ-हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का ही प्रयोग किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय आदि सभी रूपों में माना जाए।

९. हिन्दी में "ऐ", "औ" का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है। पहले प्रकार की ध्वनियाँ हैं, "है", "और" आदि में हैं तथा दूसरे प्रकार की "गवैया", "कौवा" आदि में। इन दोनों ही प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों (ऐ, औ) का प्रयोग किया जाए "गवय्या", "कव्वा" आदि संशोधनों की आवश्यकता नहीं।

१०. संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में सामान्यतः संस्कृत रूप ही रखा जाए परन्तु जिन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी में हलन्त चिह्न लुप्त हो चुका है उनमें उसको फिर से लगाने का यत्न न किया जाए, जैसे- महान, विद्वान आदि में।

११. जहाँ पंचमाक्षर के बाद उसी के वर्ग के शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो वहाँ अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए, जैसे- गंगा, वाङ्मय, संपादक, साम्य, सम्मति।

१२. चन्द्रबिंदु के बिना प्रायः अर्थ में भ्रम की गुंजायश रहती है, जैसे- हंस, हँस॥ अंगना, अँगना आदि में। अतएव ऐसे भ्रमों को दूर करने के लिए चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ चन्द्रबिन्दु कस प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चन्द्रबिन्दु के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे वहाँ चन्द्रबिन्दु के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग की भी छूट दी जा सकती है, जैसे- नहीं, में, मैं। परंतु कविता आदि के ग्रंथों में छंद की दृष्टि से चन्द्रबिन्दु का यथास्थान अवश्य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चन्द्रबिन्दु का उच्चारण सिखाना अभीष्ट हो वहाँ उसका यथासथान सर्वत्र प्रयोग किया जाए, जैसे- नहीं, में, मैं, नँद-नंदन।

१३. अरबी-फारसी मूलक वे शब्द जो हिन्दी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिन्दी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिन्दी रूप में ही स्वीकार किए जाएं, जैसे- जरूर। परन्तु जहाँ पर उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो वहाँ उनके हिन्दी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्ते लगाए जाएं, जिससे उनका विदेशीपन स्पष्ट रहे, जैसे- राज़, नाज़।

१४. अँग्रेजी के जिन शब्दों में अर्ध विवृत "औ" ध्वनि का प्रयोग होता है उनके शुद्ध रूप का हिन्दी में प्रयोग अभीष्ट होने पर "आ" की मात्रा के ऊपर अर्धचन्द्र का प्रयोग किया जाए।

१५. संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए, जैसे- "दुःखानुभूति" में। परन्तु यदि उस शब्द के तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा।

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