12 January 2008

गोरी मधु बोरी सी

आँकी सी बाँकी सी झाँकी सी स्यार की
गोरी मधु बोरी सी, नर्मदा कछार की
शी फूल शीश पर अमुवा के बौर सा
चुनरी का गोटा है दुलहन के मौर सा
चाँदी की झालरियाँ पंख ज्यों मयूर के
कानों के झुमके ज्यों गुच्छे अंगूर के
माथे का स्वेद ज्यों चिरौंजियाँ अचार की ।।

बड़ी बड़ी गोल आँख तरबूजा चीर सी
आँखों की आभा भी रेवा के नीर सी
गालों की लाली भी दाल ज्यों मसूर की
अरहर अषर देह गंष ज्यों कपूर सी
हँसने में खिल खिलती कली जयों अनार की ।।

भरी भरी छाती जयों भरे कनक कलशे हों
आँचल से ढँके भरे दूध या कि जल से हों
पतली सी पुष्ट कमर ककड़ी की देह रे
माखन और गोरस सा अन्तर का स्नेह रे
गोल गोल बाँहें ज्यों शाखें कचनार की ।।

कटि का करधौना ज्यों गढ़ का परकोटा रे
घेरदार लँहगे का भार कर कछौटा रे
पिंडली में लिपट रहे तोड़ों के गीत रे
पैंजन भी बन बैठे एड़ी के मीत रे
बिछुओं की झुनझुन ज्यों रागिनी सितार की ।।

मचल मचल चलती ज्यों सतपुड़िया निर्झरी
बहक बहक चलती ज्यों गंध पवन बावरी
ठिठक ठिठक चलती भिनुसार की तरैया सी
सिहर सिहर चलती अगहन की पुरवैया सी
छलक छलक चलती ज्यों बादरिया क्वाँर की ।।

-बृजमोहन सिंह ठाकुर

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