20 October 2007

सूरज का टुकड़ा

वक्त के मछुआरे ने
फेंका था जाल
कैद करने के लिए
सघन तम को
जाल के छिद्रों से
फिसल गया तम
और कैद हो गया
सूरज का टुकड़ा ।
वक्त का मछुआरा
कैद किए फिर रहा है
सूरज के उस टुकड़े को
और
सघनतम होती जा रही है
तमराशि घट घट में
उगानी होगी
सूरज के नए टुकड़ों की नई पौध
जगानी होगी बोधगम्यता
युग शिक्षक के अन्तस में
तभी खिलेगी वनराशि
महकेगा वातास
छिटकेंगीं ज्ञान रश्मियाँ ।
क्यों न चल पडें हम
अभी से ! हाँ अभी से !!
इस नए पथ की ओर
कहा भी गया है
जब आँख खुलें
तभी होती है भोर
तभी होती है भोर !!

-डा० जगदीश व्योम

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