21 February 2010

कृष्ण शलभ होली पर केन्द्रित के कुछ दोहे

हाँडी में हल्दी धरी, पैसे धरे तुरन्त
होली की बारात का, लिखता लगुन वसंत।।

फागुन का स्वागत करे, खिल पलाश के फूल
गम के गाल गुलाल मल, तू भी सब कुछ भूल।।

आलस होली में जला, करो कर्म की बात
संकल्पों की रात हो, सुनो फागुनी रात।।

रंगों की बोलो कहो, कौन जात औ पाँत
गले मिलो इक रंग हो, करो प्रेम की बात।।

नीला-पीला कासनी, हरा गुलाबी लाल
सब रंग कच्चे, प्यार का बस पक्का रँग डाल।.

होली की अठखेलियाँ, जिस घर चाहें पैंठ
फागुन में लगने लगे, देवर जैसा जेठ।।

जो होली होली पिया, होली में मत रूठ
अब उठकर तन मन रंगो तिझको पूरी छूट।।

क्षणभर में हल हो गए, पिछले कई सवाल
कसकर गलबहियाँ भरीं, किए गुलाबी गाल।।

छुटी नयन पिचकारियाँ, खेलन लागी फाग
अंग अंग सिहरन जगी, जगे देह के राग।।

फागुन ने छू भर दिया, खुले अलस के नैन
भरी जवानी दौड़ हो मारन लागी सैन।।

अरुण अधर नीले नयन, मुकर चंपई गात
अंग अंग रंग रस पगा, करे फागुनी बात।।

ये फागुन की रात है, परस पिया मत भूल
सारा रंग निचोड़ ले, हम टेसू के फूल।।

-कृष्ण शलभ

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