22 October 2006

हिन्दी चर्चा वाया यू.एस.ए.(भाग- 3)

दुष्यन्त समारोह से वापस आगरा लौटते हुए वहले ही यह तय हो चुका था कि रास्ते में हजरतपुर रुकना है। रामेश्वर काम्बोज हजरतपुर केन्द्रीय विद्यालय में प्राचार्य हैं और हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं से एक साथ जुड़े हुए हैं। लगभग हर पत्र-पत्रिका में उनकी रचनाएँ तो मिलेंगी ही वे इण्टरनेट पर भी खूब सक्रियता के साथ जुड़े हुए हैं। हम लोग बातें कर ही रहे थे कि ड्राइवर ने संकेत किया कि हजरतपुर आ गया है।
काम्बोज जी प्रतीक्षा कर रहे थे और साथ में थे हिन्दी मंच के ओजस्वी कवि सन्तोष पाण्डेय। सन्तोष पाण्डेय बहुत अच्छा लिखते हैं और कविताएँ बहुत ही अच्छी तरह प्रस्तुत भी करते हैं। विगत वर्षों में सन्तोष जी अपने दुपहिया वाहन से टकरा गए और उन्हें शारीरिक रूप से काफी परेशान होना पड़ा। लेकिन अब वे स्वस्थ हैं। काम्बोज जी और सन्तोष जी को आमने-सामने रहते देखकर काफी सन्तोष हुआ।
काम्बोज जी के यहाँ पहुँचते ही समोसे, मिठाई और चाय का दौर समाप्त हुआ तो कविता सुनने-सुनाने की सुगबुगाहट शुरू हो गई। सोम ठाकुर बैठे हों और उन्हें बिना कविता सुनाये छोड़ दिया जाये, यह भी भला कभी संभव है। सोम जी ने हर अवसर के लिए कविताएँ लिखी हैं जिनमें उनकी कुछ कविताएँ तो अति लोकप्रिय और कालजयी हैं। विशेष रूप से जिन कविताओं में लोकतत्व समाहित हो जाता है उन कविताओं का माधुर्य स्वत: ही बढ़ जाता है और फिर जब लोकगीत सोमठाकुर के कण्ठ से फूटे तो फिर बात ही क्या है।
भारतीय नारी अपने पति की उपस्थिति सर्वत्र पाती है। उसे पूरी सृष्टि में अपने पति की ही भीनी-भीनी गंध महसूस होती है, चाहे उसका श्रृंगार हो या घर-द्वार सब जगह उसके प्यारे पिया ही तो महक रहे हैं। इसी भाव-भूमि का लोकगीत सोमठाकुर ने सुनाया तो सारी थकान दूर हो गई और ऐसी सुगंध महकी कि मुझे तो अब भी महसूस हो रही है..... शायद आपको भी इस लेख में से महसूस हो सके तो जरूर बताइयेगा-
बेला न महके
चमेली न महके
मेरे गजरे में मेरे पिया महकें।
(पूरा गीत फिर कभी ........)
सभी की कविताओं का एक-एक दौर चला और फिर हम लोग आगरा के लिए चल दिए। सोम ठाकुर को उनके आवास पर छोड़कर कटारे जी, कमलेश जी के साथ अशोक रावत के आवास पर आ गए।
पूरे दिन कुछ न कुछ खाते ही रहे इस लिए भूख तो गायब ही थी पर रावत जी के घर का स्वादिष्ट भोजन आकर्षित कर रहा था इसलिए थोड़ा थोड़ा खा कर फिर कमलेश भट्ट कमल और अशोक रावत की नई गजलें सुनी। अशोक रावत का एक शेर तो अब तक मन पर छाया हुआ है-
थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ
इतना क्या कम है अपनी पहचान बचा पाया हूँ।। (अशोक रावत)
रात काफी हो गई थी..... हम लोग सो गये क्योंकि सुबह जल्दी उठकर गुड़गाँव के लिए प्रस्थान करना था।

................ (क्रमश: .......) .........

4 comments:

Anonymous said...

यात्रा वृत्तान्त अत्यन्त रोचक शैली में प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि मैं भी इस यात्रा में डा, व्योम का सहयात्री रहा हूँ, पर स्मरणशक्ति से पूरी यात्रा का सजीव चित्रण करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।इस महत्वपूर्ण यात्रा में शताधिक साहित्यकारों से मिलना हुआ।अब देखते हैं डा, व्योम कितने नाम याद रख पाते हैं।आगामी कडी की प्रतीक्षा है।संस्मरण की विलुप्त होती जा रही शैली के पुनर्जागरण के लिए डा, व्योम को बहुत-बहुत धन्यबाद।
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

Pratyaksha said...

वाकई , हमें भी अगले भाग का इंतज़ार है ।

डॅा. व्योम said...

धन्यवाद कटारे जी और प्रत्यक्षा जी...... अगली कड़ी में गुड़गाँव पहुँच रहे हैं.......। डॉ॰ व्योम

Dr.Bhawna Kunwar said...

व्योम जी आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया वृतान्त वास्तव में बहुत रोचक है,आपको बधाई और आगे भी इन्तजार रहेगा:
डॉ० भावना कुँअर