16 August 2006

१५ अगस्त

गीत
हमारे घर की दीवारों में अनगिनत दरारें हैं
सुनिश्चित है, कहीं बुनियाद में गलती हुई होगी।

हमारे पास सब कुछ है मगर दुर्भाग्य से हारे
कहीं अन्दर से चिनगारी कहीं बाहर से अंगारे
गगन से बिजलियाँ कड़कीं धरा से जलजले आए
यही क्या कम है, हम इतिहास में जीवित चले आए
हमारे अधबने इस नीड़ का नक्शा बताता है
कि कुछ आरम्भ में कुछ बाद में गलती हुई होगी।

ये वह धरती है, जिसमें प्यार की गंगा उतरती है
मनुज में और मनुज में जो नहीं कुछ भेद करती है
हमारे पूर्वर्जों ने प्यार की बोली सदा बोली
अभागे पुत्र उनके खेलते हैं खून की होली
कुराने पाक, गीता, ग्रंथ-साहब शीश धुनते हैं
कि उनके मूल के अनुवाद में गलती हुई होगी।

अगर ईमान की पूछो तो हर ईमान का गम है
कि उन्हें हर मानने वाला, उन्हें कुछ जानता कम है
जो हिंसा के समर्थक हैं, सबक इतिहास से ले लें
कभी फल-फूल देती ही नहीं अन्याय की बेलें
हजारों वर्ष भारत ने महाभारत के दु:ख झेले
दुशासन से क्षणिक उन्माद में गलती हुई होगी।

जो काया हो गई पीड़ित तो लालच में फँसी होगी
अहिंसा के पुजारी के ही चेहरे पर हँसी होगी
मज़हब की आग में, आँधी सियासत की चलाते हैं
यही नादान हँसती खेलती बस्ती जलाते हैं
जो सब कुछ जल गया फिर होश में आए तो क्या आए
हवा और आग के संवाद में गलती हुई होगी।

-उदय प्रताप सिंह
(आजकल, जुलाई-१९९२ से साभार)


2 comments:

अनूप भार्गव said...

उदय प्रताप सिह जी की कविता बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली लगी । उन्हें यहां उन के अमेरिका प्रवास के दौरान कई कवि सम्मेलनों में सुननें का अवसर मिला लेकिन यह कविता सुननें को नही मिली ।

Anonymous said...

धूमिल की कविताओं का सच मोहभंग की स्थितियों से उपजा है। एक संवेदनशील किंतु यथार्थवादी रचनाकार की सहज वेदना से उपजी पंक्तियाँ कालजयी हैं। आज के समय में दस्तक देती हुईं-सी।

===कविता वाचक्नवी