कविता की पाठशाला
29 January 2006
अप्रैल - 2006
[राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अपने मित्रों
नरेन्द्र शर्मा, सुमित्रानन्दन पंत,
बालकृष्ण शर्मा नवीन, डॉ॰ नगेन्द्र
व इलाचन्द्र जोशी के साथ]
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मेरे उपवन के हरिण आज वन चारी
मैं बांध न लूँगी तुम्हें तजो भ्रम भारी।
गिर पड़े दौड़ सौमित्र प्रिया पग तल में
वह भीग उठी प्रिय चरण धरे दृग जल में।
मैथिलीशरण गुप्त
०००
``निरख सखी ये खंजन आये,
फेरे मेरे मनभावन ये नयन आज मन भाये।
फैला उनके तन का आतप मन ने सर सरसाये।
घूमें वे इस ओर वहाँ, ये हंस यहाँ उड़ छाये।
करके ध्यान आज इस जन का वे निश्चय मुसकाये।
फूल उठे हैं कमल अधर से ये बन्धूक सुहाये।
स्वागत, स्वागत शरद भाग्य से मैंने दर्शन पाये।
नभ ने मोती बारे लो ये अश्रु अर्घ्य भर लाये।''
-मैथिलीशरण गुप्त
(यशोधरा से)
०००
युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी,
रघुकुल में थी वह एक अभागिन रानी।
-मैथिलीशरण गुप्त
०००
``सखि वे मुझसे कह कर जाते,
तो क्या वे मुझको अपनी पथ बाधा ही पाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते
पर इनसे जो आँसू बहते
सदय हृदय वे कैसे सहते?
जायँ सिद्धि पावें वे सुख से
दुखी न हों इस जन के दु:ख से
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते।''
-मैथिलीशरण गुप्त
* शताब्दी की चुनी हुई बाल कविताएँ
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