उडूँ कैसे मैं
पंख तोड़ दिये हैं
ताक में बाज़
***
कहाँ रुके हैं
सितमगर वाण
कला के शत्रु
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ढेकी कूटती
वह आदिवासिनि
जीवन्त कला
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वनों में छूटे
पढ़ाई की भूख में
सब अपने
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झलक रहा
दीये की रोशनी में
माँ का वदन
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अँधेरी रात
फटी चटाई पर
ज़ख्मी सपने
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नदी के पार
गूँजता अनहद
जलपाखी-सा
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लौट आने को
करता मनुहार
अपना गाँव
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बर्फ जमीं थी
सदियों के रिश्तों में
पिघल बही
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अकेला राही
घुमावदार रास्ता
वर्षा का पानी
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विजन वन
गरजता बादल
घना जंगल
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अँगीठी पर
माँ खुद को पकाती
ख्वाब बुनती
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रेंगने लगी
बेटे की पीठ पर
आहत हवा
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एक ही छत
सब हैं साथ-साथ
अनजाने से
-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर
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