12 August 2017

डा० स्टेला कुजूर के हाइकु

उडूँ कैसे मैं
पंख तोड़ दिये हैं
ताक में बाज़

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कहाँ रुके हैं
सितमगर वाण
कला के शत्रु

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ढेकी कूटती
वह आदिवासिनि
जीवन्त कला

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वनों में छूटे
पढ़ाई की भूख में
सब अपने

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झलक रहा
दीये की रोशनी में
माँ का वदन

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अँधेरी रात
फटी चटाई पर
ज़ख्मी सपने

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नदी के पार
गूँजता अनहद
जलपाखी-सा

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लौट आने को
करता मनुहार
अपना गाँव

***

बर्फ जमीं थी
सदियों के रिश्तों में
पिघल बही

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अकेला राही
घुमावदार रास्ता
वर्षा का पानी

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विजन वन
गरजता बादल
घना जंगल

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अँगीठी पर
माँ खुद को पकाती
ख्वाब बुनती

***

रेंगने लगी
बेटे की पीठ पर
आहत हवा

***

एक ही छत
सब हैं साथ-साथ
अनजाने से

-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर

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