आज सुबह
सूरज ने पूछा
क्यों रखते हो बंद खिड़कियाँ
कमरे में कुछ देर
धूप को भी झरने दो
अन्दर की चीजों को भी
साँसें भरने दो
बड़े अज़ब हो
दिन में भी
कमरे में रखते जली बत्तियाँ
मुर्दा हुई मेज
जिस पर तुम बैठे रहते
देखो बाहर
सुनो कि पत्ते क्या-क्या कहते
क्यों नाहक ही
बना रहे तुम
अंधे युग की नई बस्तियाँ
होती रहतीं
रोज़ नई घटनाएँ बाहर
तितली-तोते-मोर मनाते
उत्सव जी-भर
छिपा रहे तुम
हम सबसे क्या
जो करते हो रोज़ गलतियाँ
-कुमार रवीन्द्र
सूरज ने पूछा
क्यों रखते हो बंद खिड़कियाँ
कमरे में कुछ देर
धूप को भी झरने दो
अन्दर की चीजों को भी
साँसें भरने दो
बड़े अज़ब हो
दिन में भी
कमरे में रखते जली बत्तियाँ
मुर्दा हुई मेज
जिस पर तुम बैठे रहते
देखो बाहर
सुनो कि पत्ते क्या-क्या कहते
क्यों नाहक ही
बना रहे तुम
अंधे युग की नई बस्तियाँ
होती रहतीं
रोज़ नई घटनाएँ बाहर
तितली-तोते-मोर मनाते
उत्सव जी-भर
छिपा रहे तुम
हम सबसे क्या
जो करते हो रोज़ गलतियाँ
-कुमार रवीन्द्र
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