06 August 2023

लो एक बजा दोपहर हुई

लो एक बजा दोपहर हुई
चुभ गयी हृदय के बहुत पास
फिर हाथ घडी की तेज सुई

पिघली सडकें, झरती लपटें
झुँझलायीं लूएँ धूलभरी
अम्बर ताँबा, गंधक धरती
बेचैन प्रतीक्षा भूलभरी
किसने देखा, किसने जाना
क्यों मन उमडा, क्यों आँख चुई

रिक्शेवालों की टोली में
पत्ते कटते पुल के नीचे
ले गयी मुझे भी ऊब वहीं
कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे
मैंने भी एक दाँव खेला
इक्का माँगा, पर खुली दुई

सहसा चिंतन को चीर गयी
आँगन में उगी हुई बेरी
बह गयी लहर के साथ लहर
कोई मेरी, कोई तेरी
फिर घर धुनिए की ताँत हुआ
फिर प्राण हुए असमर्थ रुई
लो एक बजा दोपहर हुई


-भारत भूषण

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