आंगन कभी मुंडेर पर, झलके उसका रूप।
आँख-मिचौली खेलती, है जाड़े की धूप।।
आई ठिठकी और फिर, लोप हो गई धूप।
जाते जाते ठंड का, थमा गई प्रारूप।।
सूरज दुबका गगन में, डाल धुंध की शाल।
ठंड कलेजा चीरती, लोग हुए बेहाल।।
जीवन हिम-सा हो रहा, हवा चलाये तीर।
मलता रहे हथेलियाँ, अकड़ा हुआ शरीर।।
होंठ रहे हैं थरथरा, काँप रहे हैं गात।
धुआं-धुआं सी हो रही, मुंह से निकली बात।।
युवा-वृद्ध-नर-नारियाँ, क्या भोगी क्या संत।
सभी मनाते हैं यही, आये शीघ्र वसंत।।
-शैलेन्द्र शर्मा
आँख-मिचौली खेलती, है जाड़े की धूप।।
आई ठिठकी और फिर, लोप हो गई धूप।
जाते जाते ठंड का, थमा गई प्रारूप।।
सूरज दुबका गगन में, डाल धुंध की शाल।
ठंड कलेजा चीरती, लोग हुए बेहाल।।
जीवन हिम-सा हो रहा, हवा चलाये तीर।
मलता रहे हथेलियाँ, अकड़ा हुआ शरीर।।
होंठ रहे हैं थरथरा, काँप रहे हैं गात।
धुआं-धुआं सी हो रही, मुंह से निकली बात।।
युवा-वृद्ध-नर-नारियाँ, क्या भोगी क्या संत।
सभी मनाते हैं यही, आये शीघ्र वसंत।।
-शैलेन्द्र शर्मा
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